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सप्तकला, सप्ताशय, सप्तधातु, उपधातु और त्वचा का संक्षेप में वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् क्रमशः 'प्रथमादि षष्ठ अध्यायों' में पाक 34, चूर्ण 61, गुटिका 59, क्वाथ 64, घृत 21, तैल 22 के अव्यर्थ योगों का संग्रह किया गया है। सप्तम मिश्रकाधिकार' में गुग्गुलु प्रकरण (8 योग), शंखद्राव, गंधक विधि, शिलाजतु, स्वर्णादिधातुमारण, मृगांकरस, ताम्र-वंग-नाग-सार-मंडूर-अभ्रक का मारण और गुण, धातुसत्त्वपातन, पारदशोधन आदि रसशास्त्र संबंधी विषय. सिद्धरसौषधियोग (25), आसवअरिष्ट 6 योग, लेप 37 योग, पंचकर्म, रक्तमोक्ष, वाष्पस्वेदन, विषचिकित्सा, स्त्रीचिकित्सा, गर्भनिवारण, गर्भपातन प्रभृति विषय तथा अंत में 'कर्मविपाक' प्रकरण दिया गया है।
इसमें फिरंगरोग (सिफलिस) और उसकी 'चकित्सा में चोपचीनी का तथा पारद और अफीम का उल्लेख है। 'मधुराज्वर' नाम से टाइफाइड का वर्णन भी है। ग्रंथ का प्रथम 'पाक प्रकरण' विशेष उल्लेखनीय है। प्राचीन अवलेहों की कल्पना-परम्परा के स्थान पर समाज में पोक निर्माण का महत्व बढता जा रहा था। यह यूनानी चिकित्सा का प्रभाव था। पाकों पर सर्वप्रथम इस ग्रन्थ में विस्तार से विवरण मिलता है। पाक-प्रकरण के प्रारम्भ में लिखा है चिकित्सा में दो ही सारभाग (मुख्य भेषज हैंपाकविद्या और रसायन । ('चिकित्सायां द्वयं सारं पाकविद्या रसायनम्')। यह वचन माधवउपाध्यायकृत 'पाकावली' में संभवतः यहीं से उद्धृत हुआ है। विजयापाक और अफीमपाक भी दिये हैं। मध्ययुगीन समाज में प्रचलित चिकित्सायोगों के संबंध में जानकारी देने वाला यह अपूर्व ग्रन्थ है। इससे चिकित्सा में उस काल में पाकों और रसायनों की महत्ता भी सूचित होती है।
'अम्लवेतसचूर्ण' में अम्लवेतस के फलों को लेने का उल्लेख है। रसयोगों में 'घोडाचोली' (अश्वकंचुकी) द्रष्टव्य हैं। भावप्रकाश से 'रसकर्पूर' भी इसमें उद्धृत है। अतः यह भावप्रकाश से बाद की रचना है। नाडीपरीक्षा शाङ्गधरसंहिता पर आधारित है।
कुछ हस्तप्रतियों से ज्ञात होता है कि इस ग्रंथ के संग्रह में ग्रंथकार को 'उपकेशगच्छीय वाचक विद्यातिलक' का सहयोग प्राप्त हुआ था -
'श्रीमदुपकेशगच्छीयविद्यातिलकवाचकाः !
किञ्चित् संकलितो योगवार्ता किञ्चित् कृतानि च ॥' ग्रंथ के प्रत्येक अध्याय की अन्तिम पुष्पिकाओं में भेद मिलता है। विभिन्न हस्तप्रतियों में भी पुष्पिकाओं में अन्तर मिलता है1. प्रथम अध्याय के अन्त में
'नागपुरीययतिगण श्रीहर्षकीतिसंकलिते वैद्यकसारोद्धारे प्रथमः पाकाधिकारोऽयम् ।' 2. द्वितीय अध्याय के अन्त में
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