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तास पाटि हैमविमलसूरि, जेह समरि पाप जई दूरि ।
तास पाटि 'सोभाग्य हर्ष' जाणि, तपसंयम फेरी गुणबांणि 11511 तास पाटि अति गुण भंडार, 'सकलसूरि' सिरोमणि सार । श्री 'सोमविमलसूरि ते मांणि, जस नामि संपति श्रेष्ठ आणि 115218 तेहतणो पटोघर जेह 'हेमसोमसूरि' नांमि तेह |
तास पार्टि 'विमलसोमसूरि', जस नांमि दूरित जाये दूरि ॥53॥ तास पार्टि पटोवर भलो, श्री विशालसोमसूरि गुणानिलो । प्रतिरूपी तेजस्वी सही, छत्रीसई गुणषांणिज कही ॥54॥ आचारजिना गुण जेतला, 'श्री विशालसोमसूरिमां तेतला । प्रौढ परिवार तेहनो सार, पंडित तणो नवि लाभई पार 115.1 'जिनकुशल' पंडित तेहमां जांण ग्रहगणमांहि दीपई जिम भांण । 'लक्ष्मीकुशल' तसु केरो सीस, गुरु प्रसादई हुई जगीस |56||
( वै सा.र.प्र., ग्रंथांत )
इनकी एक ही वैद्यक कृति मिलती है- 'वैद्यकसाररत्तप्रकाश' । यह चौपाई छंद में गुजराती भाषा में लिखा गया है । लक्ष्मीकुशल ने 'रायदेश' के 'ईडर नगर' के पास 'ओडा' नामक ग्राम के जिनमंदिर में चौमासा व्यतीत किया । वहीं संवत् 1694 (1637 ई.) फाल्गुन सुदी 13 शुक्रवार को इस ग्रन्थ को पूर्ण किया—
'रायदेस' जगमांहि प्रसिद्ध, 'ईडरनगर' अछई समृद्ध ।
ते पासई छई 'ओडा' गाम, धर्मतणां जिहां मोटां ठांम 1159 || 'जिनमंदिर' अभिनंदन देव, 'प्रागवंश' सारई सेव । गुरुतणो आदेशज लही, 'लक्ष्मीकुशल' चऊमांसु रही ||60|| 'संवत सोलचुराणु' जेह, फागुण सुदि तेरस वली तेह |
शुक्रवार संयोगई सही, 'लक्ष्मीकुशलई श्रे चऊवई कही ॥ 1॥
लक्ष्मीकुशल ने वैद्यकविद्या को अपने गुरु से सीखा था । इस ग्रंथ की रचना में
आत्रेयनिदान व सुश्रुतसार और अन्य ग्रन्थों का आधार लिया गया था ।
देवगुरु प्रसादि करी, 'रत्नप्रकास थे चऊपई बरी ।
'आत्रेयनिदान' 'सुश्रुत्तनु सार, ऊपर ग्रंथतणो उद्धार 1162|| इस ग्रन्थ में 11 अधिकार हैं
ग्रही 'नामरतन' ते जांणि शास्त्र विचारि बोली वाणी । हितकारिणी थे चउपई सार, रच्या एकादश अधिकार 116311
देसाई ने 'वैद्यकसाररत्नप्रकाश' की संवत् 1718 फा. वदि 2 सोम की हस्तलिखित
प्रति का 'जैन गुर्जर कविओ' भाग 1, में उल्लेख किया है ।
लेखक ने ग्रन्थ में गुरु की महिमा बताई है ।
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