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- योगचिंतामणि का रचनाकाल सं. 666 से किंचित पूर्व का होना चाहिए क्योंकि जोधपुर में मैं ने इस संवत् वाली हस्त प्रति देखी है। सं 1650 की हस्तप्रति ला द. इन्स्टीट्यूट अहमदाबाद (ग्रयाक 1281) में विद्यामान है, इस पर गुजराती में 'टवा' भी है। जाली ने इसका रचनाकाल सं. 1668 या 1656 के बीच माना है, क्योंकि इन संवतों की प्राचीनतम हस्तप्रतिया उपलब्ध हैं। स्प ट है कि संवत् 1650 (1593 ई.) से पूर्व इस ग्रन्थ की रचना हो चुकी थी। ___ग्रन्थ के प्रारम्भ में हर्षकीति ने सर्वज्ञ । आदिनाथ) एवं अपने गुरु चन्द्रकीर्ति सूरि की वन्दना की है ---
श्रीसर्वज्ञ प्रणम्यादौ ‘चन्द्रकीति' गुरु ततः ।
'योंगचितामणि' वक्ष्ये बालानां बोधहेतवे ।।।।।' कुछ हस्त प्रतियों में ‘चन्द्रकीति' के स्थान पर 'मानकीति' नाम भी मिलता है, जो पाठ की अशुद्धि मात्र है।
ग्रन्थ के अन्त में गुरु 'चन्द्रकीति' को 'सूरीश्वरप्रवरसिंहशिगेवतस' (सूरि-प्रमुख) विशेषण से संबोधित किया गया है
'सूरीश्वरप्रवरसिंहसि रोवतंस 'श्रीचंद्रकीति'गुरुपादयुगप्रसादात् ।
गम्भीरचारुतमवैद्यकसारशास्त्रं 'श्रीहर्षकीतिरतुलं विदधे प्रबंधः ।। 81।। (ग्रंथांत) गुरु के बाद ग्रन्थारम्भ में भगवान 'जिन' या 'तीर्थकृत्' (तीर्थंकर ) की स्तुति निम्न शब्दों में की है -
'यत्र वित्रा समायांति तेजांसि च तमांसि च । महीपस्तदहं वंदे चिदांनदमयं महः ।। 2।।
1 रा. प्रा. वि. प्र, जोधपुर, 4098 - जॉली, इण्डियन मेडिसिन, पृ. 4
यह ग्रथ प्रकाशित है। प्रथम बार बम्बई से सन् 1869 में मारवाड़ी में अनुवाद के साथ छपा है। इसके बाद पूर्णचन्द्रसेन शर्मा कृत गुजराती अनुवाद सहित एम. पार. जागुष्टे ने अहमदाबाद से प्रथम बार 1898 में छपाया था, जिसका द्वितीय संस्करण 1908 में निकाला था। डी. जी सादेकर ने मराठी अनुवाद सहित संपादित कर खानापुर (जिला, बेलगांव, कर्नाटक) से 1907 में छपाया था। ये संस्करण अब अनुपलब्ध है। वर्तमान में इसके दो मुद्रित संस्करण मिलते हैंपहला, दत्तराम चौबे कृत, 'माथुरीमंजुषा' नामक हिन्दी भाषा-टीका सहित वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई से सन् 1940 में तथा दूसरा लखीमपुर निवासी पं. बुधसीताराम शर्मा कृत भाषा टीका सहित भार्गव पुस्तकालय, गायघाट, बनारस से | 941 ( तृतीयावृत्ति)
में प्रकाशित हुए हैं। 5 भांडारकर, पूना, ग्रंथांक 159
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