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हर्षकीर्तिसूरि व्याकरण, ज्योतिष और वैद्यकविद्या में निष्णात थे। उपयुक्त संस्कृत के ग्रन्थ प्राय: इन्हीं तीन विषयों से संबंधित हैं। गुजराती व राजस्थानी की रचनाएं धर्म कथा आदि से संबंधित हैं ।।
हर्षकीतिसूरि श्वेतांबर 'उपाध्याय' और भट्टारक यति परम्परा के थे। तृतीय अध्याय की पुष्पिका में लिखा है - 'इतिश्रीभट्टारकश्रीहर्षकीत्युपाध्यायसंकलिते योगचिता. मणी........।' भट्टारक साधु होने से लौकिक विद्याओं में इनकी उत्तम गति थी।'
इनका काल सोलहवीं शती का अन्तिम चरण एवं सत्रहवीं शती का प्रथम चरण है। इनकी अधिकांश रचनाएं वि. सं. 1660 (1603 ई.) के आसपास को हैं । योगचिन्तामणि -
हर्षकीतिसूरि का यह प्रसिद्ध वैद्यक-ग्रंथ है। आयुर्वेदजगत् में जो सम्मान शाङ्गधरसंहिता को प्राप्त हुआ, उसी के समान परवर्ती वैद्य-परम्पराओं में, विशेषकर जैन यति-मुनियों की परम्पराओं में, 'योगचिंतामणि' को भी आदर मिला। हस्तलिखित प्रतियों में इसके 'योगचिंतामणि' के अतिरिक्त 'वैद्यकसारसंग्रह', 'सारसंग्रह', 'वैद्यकसागेद्धार' नाम भी मिलते हैं। कुछ ह प्र. में ये तीनों नाम एक साथ भी मिलते हैं
"नागपुरीयतपोगणराज 'श्रीहर्षकीति' संकलिते वैद्यकसारोद्धारे' तृतीयो गुटिकाधिकार: ।।1।। इति श्रीनागपुरीय तपागच्छीय 'श्रीहर्षकीतिसूरि संकलिते 'योगचिंतामणी वैद्यकसारसंग्रहे' गूटिकाधिकार : तृतीय: ।।3।।"
(रा. प्रा. वि. प्र , शा. का., उदयपुर, ग्रंथांक 1465, तृतीय अधिकार के अन्त की पुष्पिका। रचनाकाल-पी. के. गोडे ने हर्षकीर्तिसूरिकृत योगचिंतामणि का रचनाकाल 1550 ई. के बाद अथवा 16वीं शती के तृतीयपाद में माना है ।
1 इनको 'विजयशेठ विजयाशेठाणी स्वल्प प्रबंध' वि. सं. 1665 के लगभग) प्रावि छोटे
काव्य हिन्दी-गुजराती में मिलते हैं । ५ 'हर्षकीति' नामक अन्य रचनाकार का वर्णन हिन्दी साहित्य में प्राता है। यह
संभवत: जयपुर या उसके पास के निवासी थे। इनकी राजस्थानी मिश्रित हिन्दी में 'चतुर्गतिवेलि' (रचनाकाल वि. सं. 1683), पंचगतिवेलि' (रचना सं. 1683) प्रादि रचनाएं मिलती हैं। (देखिए-डा, प्रेमसागर जैन, 'हिन्दी जैन भक्तिकाव्य
और कवि', पृ. 174)। 3 मो. द. देसाई ने हर्षकीति द्वारा प्रणीत 'योगचितामणि' वैद्यकसारोद्धार और वैद्यक
सारसंग्रह-नाम से पृथक तीन वैद्यकग्रन्थों का उल्लेख किया है (जैन गुर्जर कविनो,
भाग 1, पृ. 470)। वस्तुतः तीनों एक ही ग्रन्थ के नाम हैं। • P. K. Gode, Studies in Indian Literary History, Vol. II, P. 11.
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