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सिद्धौषधानि पंथ्यानि रागद्वेषरुजां जये। जयति सद्वचांस्यत्र 'तीर्थकृत्सोऽस्तु' व: श्रिये ।। ।। जगत्रितयलोकानां पापरोगापनुत्तये ।
यद्वाक्य भेष जां भाति श्रीजिन: स श्रियेस्तु न: ।। 4।।' ग्रन्थ के अन्त में लिखा है कि आत्रेय, सुश्रुत, पराशर, वाग्भट, अश्विनी, हारीत, वृन्द, भृगु चिकित्साकलिका, भेड आदि के मत यहां उद्धृत किये गये हैं -
आत्रेयसुश्रुतपराशर-वाग्भटाश्वि-हारीत-वृन्द-कलिका-भेडवराभिधेया: । येऽमी 'निदानयुतकर्मविपाक मुख्यास्तेषां मतं समनुसृत्य मया कृतोऽयम् ।।
(ग्रंथांत, श्लोक 83) ग्रन्थकार के समक्ष पूर्व निर्मित 'योगप्रदीप' और 'योगशतक' का आदर्श विद्यमान था । अतएव उसने उसी क्रम में योगचितामणि के प्रसिद्ध होने की कामना की है
'यथा 'योगप्रदीपोऽस्ति' पूर्वं 'योगशतं' तथा ।
तथैवायं विज्ञायतां योगश्चितामणि श्चिरम् ।।' (ग्रथांत में, श्लोक 85) हर्षकीर्तिसूरि ने अनेक ग्रन्थों का अध्ययन कर रहस्यरूप में इस ग्रन्थ का प्रणयन किया
था
'विचार्य पूर्वशास्त्राणि हर्षकीया॑ह्वसूरिणा ।
किंचिदुद्ध तये स्मैतद्रहस्यं वैद्य कार्णवात् ।।' (ग्रथांत में, श्लोक 82) प्राचीन-- पूर्व प्रचलित प्रसिद्ध 'सिद्ध-औषध' योगों का ही इसमें संग्रह किया गया है । पंडितों द्वारा अनादर के भय से लेखक ने नवीन पाठ या योग नहीं दिये हैं
'प्राप्ताःप्रमिद्धि सर्वत्र सुखबोधाश्च ते यतः । अत: पुरातनै रेव पाठ. संगृह्यते मया ।।6।। नूतनपाठे विहितेऽनादरमिह पंडता: यतः कुर्युः ।
तस्मादार्षवचोभिर्निबध्यते न त्वसामर्थ्यात् ।।7।। (नथारम्भ में) इसीलिए इस ग्रन्थ में रोगों का क्रम और निदान निरूपण नहीं किया गया है, केवल कल्पनानुसार योगों का संग्रह है
'न रोगाणां क्रमः कोऽपि न निदाननिरूपणं ।
केवलं बालबोधाय योगाः केऽपि निरूपिताः ।।' (ग्रथांत, श्लोक 80) इस ग्रन्थ में सात अध्याय हैं—पाक, चूर्ण, गुटी, क्वाथ, घृत, तैल और मिश्रक'पाक: । चूर्ण 2 गुटी 3 क्वाथ 4 घृत 5 तैल 6 समिश्रका: । अध्यायाः सप्त वक्ष्यन्ते ग्रन्थेस्मिन् 'सारसंग्रहे' ॥' (ग्रंथारंभ, श्लोक 5)
ग्रन्थ के प्राम्भ में वैद्य और रोगी के लक्षण, नाड़ी-मूत्र-मुख-जिह्वा-मल-स्पर्श और शब्द परीक्षाएं, आयुर्विचार, आयुर्लक्षण, कालज्ञान, देशज्ञान , मानपरिभाषा, शारीरक,
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