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" इति श्रीनागपुरीष भट हर्ष कोर्तिसूरि संकलिते वैद्यकसारसंग्रहे चूर्णाधिकारो
द्वितीयोऽध्यायः ।'
3. तृतीय अध्याय के अन्त में
' इति श्री भट्टारकश्री हर्ष की युं पाध्यायसंकलिते योगचिंतामणी वैद्यकसारसंग्रहे गुटि
काधिकारस्तृतीयः ।'
4.
चतुर्थ अध्याय के अन्त में
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' इति श्रीमन्नागपुरीतपागच्छीय (अथवा 'तपोगणनायक' | श्रीहर्षकीयुं पाध्यायसंकलिते योगचितामयो वैद्यकसारसंग्रहे क्वाथाधिकारश्चतुर्थः ।,
पांचवें, छठे ओर सातवें अध्याय की पुष्पिकाएं भी ऐसी हीं है ।
टीकाए
इस ग्रंथ पर रजस्थानी और गुजराती में टीकाएं, बालात्रबोध और स्तबक भी प्राप्त हैं । इससे ग्रंथ की उपयोगिता और लोकप्रियता प्रकट होती है ।
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खरतरगच्छीय बाचनाचार्य 'रत्न राजगणि' के शिष्य 'रत्नजय' ने योगचितामणि पर 'बालावबोध' नामक भाषा- टीका लिखी थी । संभवतः गृहस्थावस्था का इनका नाम 'नरसिंह' था | यह टीका गुजराती में
'श्रीषरतरगच्छीय वाचनाचार्य रतन राजगणि शिष्यगणकशास्त्राय नरसिंहकृतः बालावबोधः समाप्तः तत्समाप्ती समाप्तोयं श्रीयोगचितामणिनामा वैद्यकशास्त्रं संपूर्ण | संवत् 1801 फाल्गुणमासे शुभे शुक्ले पक्षे तिथी द्वितीया भृगुवासरे लिखि पूर्णं ।। लिषितं महात्मा फकीरदास लषणयतीमध्ये || श्रीरस्तु ।।' (भांडारकर, पूना, ग्रंथांक 158)
छठे अंगसूत्र ज्ञाता पर नरसिंह कृत 'टब्बा' की प्रति संवत् 1733 की प्राप्त है । इन्होंने प्रसिद्ध 'कल्पसूत्र पर भी टीका लिखी थी । अतः इनका काल 17वीं शती का उत्तरार्ध प्रमाणित होता है ।
जोधपुर में बालावबोध सहित योगचितामणि की संवत् 1724 (1667 ई.) की हस्तप्रति सुरक्षित है ।
योगचितामणि पर तेलुगु (आंध्र ) भाषा में भी टीका उपलब्ध है । "
राजस्थान की वैद्य - परम्पराओं में और जैन यति-मुनियों की वैद्यक - परम्परा में • हर्ष कीर्तिसूरि के 'योगचिंतामणि' का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार पाया जाता है ।
जयरत्नगरि (1605 ई.)
'जयरत्नगणि' श्वेताम्बर सम्प्रदाय में पूर्णिमापक्ष के आचार्य 'भावरत्न' के शिष्य
1 रा. प्रा. वि. प्र., जोधपुर. ग्रंथांक 6861
3 सरस्वती महल, तंजोर, ग्रंथांक 11094
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