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अष्टांगमध्यखिलमत्र समंतभद्रः प्रोक्तं सविस्तरवचोविभवैविशेषात् । संक्षेपतो निगदितं तदिहात्मशक्त्या कल्याणकारकमशेषपदार्थयुक्तम् ।।
(क. का., प. 10/86) इस शास्त्र (प्राणावाय) का अध्ययन उग्रादित्य ने श्रीनंदि से किया था। वे उस काल के प्राणावाय के महान् आचार्य थे। ग्रन्थगत विशेषताएं -
प्राणावाय-परम्परा का उल्लेख करने वाला यह एक मात्र ग्रन्थ उपलब्ध है। संभवत: इसके पूर्व और पश्चात् का एतद्विषयक साहित्य कालकवलित हो चुका है। इसमें 'प्राणावाय' की दिगम्बर-सम्मत् परम्परा दी गई हैं। अपने पूर्वाचार्यों के रूप में तथा जिन ग्रन्थों को आधार-भून स्वीकार किया गया है उनके प्रणेताओं के रूप में उग्रादित्य ने जिन मुनियों और आचार्यों का उल्लेख किया है, वे सभी दिगम्बर-परंपरा के हैं। अतः यह निश्चित रूप से कह सकना संभव नहीं कि इस संबंध में श्वेतांबर--परम्परा और उसके आचार्य कौन थे। फिर भी ग्रंथ की प्राचीनता (8वीं शती में निर्माण होना) और रचनाशैली व विषयवस्तु को ध्यान में रखते हुए कल्याणकारक का महत्व बहुत बढ़ जाता है। इस ग्रन्थ के अध्ययन से जो विशेषताएं दृष्टिगोचर होती हैं, वे निम्न हैं1. ग्रंथ के उपक्रम भाग में आयुर्वेद के अवतरण-मर्त्यलोक की परम्परा का जो निरूपण : किया गया है, वह सर्वथा नवीन है। इस प्रकार के अवतरण संबंधी कथानक आयुर्वेद के अन्य प्रचलित एवं आर्ष शास्त्रग्रथों- जैसे चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता, · काश्यपसहिता, अष्टांगसंग्रह आदि में प्राप्त नहीं होते। कल्याणकारक का वर्णन 'प्राणावाय' परम्परा का सूचक है । अर्थात् 'प्राणावाय' संज्ञक-आगम का अवतरण तीर्थंकरों की वाणी में होकर जन-सामान्य तक पहुंचा-इस ऐतिहासिक परम्परा का इसमें वर्णन है। . चरक आदि ग्रंथों में आयुर्वेद के अवतरण का जो निरूपण है, उसका ऋम इस
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प्रकार है
दक्षप्रजापति
अश्विनीकुमार-द्वय
इन्द्र
ऋषि-मुनि-गण - आयुर्वेद इन ग्रंथों में आयुर्वेद को वैदिक आस्तिक-शास्त्र माना गया है। अतः इसका उद्भव अन्य वैदिक आस्तिक शास्त्रों (कामशास्त्र, नाट्यशास्त्र आदि) की भांति ब्रह्मा से स्वीकार किया गया है। वस्तुतः ब्रह्मा वैदिकज्ञान का सूचक प्रतीक है।
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