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- इस प्रकार प्राणावाय (आयुर्वेद) संबंधी ज्ञान मूलतः तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित है, अतः यह 'आगम' है। उनसे इसे गणधर, प्रतिगणधरों ने ; उनसे श्रुतके वली; और उनसे बाद में होने वाले अन्य मुनियों ने क्रमशः प्राप्त किया।
- इस तरह परंपरा से चले आ रहे इस शास्त्र की सामग्री को गुरु श्रीनदि से सीखकर उग्रादित्य ने 'कल्याणकारक' ग्रन्थ की रचना की। अतः कल्याणकारक परम्परागत ज्ञान के आधार रचित शास्त्र है। कल्याणकारक के आधारभूत जैन-आयुर्वेद ग्रंथ - .
कल्याणकारक' की रचना से पूर्व जिन जैन आयुर्वेदज्ञों ने ग्रन्थों का प्रणयन किया था, उनका उल्लेख उग्रादित्य ने निम्न पंक्तियों में किया है"शालाक्यं पूज्यपादप्रकटितमधिकं शल्यतंत्र च पात्रस्वामित्रोक्तं विषोग्रग्रहशमनविधिः
_ सिद्धसेनः प्रसिद्धः । कार्य या सा चिकित्सा दशरथंगुरुभिर्मेघनादः शिशूनां वैद्यं वृष्यं च दिव्यामृतमपि
____ कथितं सिंहनादमुनींद्रैः ।।
(क. का. 20185) आयुर्वेद के भाठ अंग हैं। आठ अंगों पर पृथक्-पृथक् जैन आयुर्वेद ग्रंथ रचे गये है। इन ग्रन्थों के नाम व उनके प्रणेता के नाम निम्नानुसार हैं - ( शालाक्यतंत्र
पूज्यपाद 12) शल्यतंत्र
पात्रस्वामि (3) विष और उग्रग्रहशमनविधि
सिद्धसेन (अमदतंत्र और भूतविद्या पर) (4) कायचिकित्सा
दशरथगुरु (5) शिशुचिकित्सा (कौमारभृत्य)
मेधनाद (6) दिव्यामृत (रसायन) और वृष्य (वाजीकरण) सिंहनाद (पाठांतर-सिंहसेन)
इनके अतिरिक्त समंतभद्राचार्य ने इन आठों अंगों का एक साथ पूर्णरूप से विस्तार. पूर्वक प्रतिपादन करने वाले वैद्यक ग्रंथ की रचना की थी। उसी के आधार पर उग्रा- . दित्य ने संक्षेप में वर्णन करते हुए 'कल्याणकारक' नामक ग्रन्थ की रचना की थी
क. का., 21/3 ...
स्थानं रामगिरिगिरीद्वसदृशः सर्वार्थसिविप्रदः श्रीनविप्रभवोऽखिलागमविषिः शिक्षाप्रदः सर्वदा ।। प्राणावायनिरुपितार्थमखिलं सर्वज्ञसंभाषितं । सामग्रीगुस्सता हि सिद्धिमधुना शास्त्रं स्वयं नान्यथा ।।
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