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'वार्तामाला' और 'योगमंजरी' भी नागार्जुन-णोत हैं। इन दोनों ग्रन्थों का उल्लेख 'निश्चलकर' ने चक्रदत्तटीका में किया है। नागार्जुन-वार्तामाला' नाम से 'श्रीकंठदत्त' ने 'व्याख्या कुसुमावलि' में उल्लेख किया है।
___ ये सब ग्रंथ सिद्धनागार्जुन के होने चाहिए; क्योंकि इनकी रचनाशैली पूर्वमध्ययुगीन है।
__ आचार्य प्रियव्रत शर्मा 'कक्षपुट' और 'योगरत्नमाला' में कुछ योगों और पद्यों की सम नता देखकर दोनो को एक ही व्यक्ति की कृतियां मानते हैं। परन्तु यह उचित नहीं है। कक्षपुट का कर्ता सिद्धनागार्जुन है। इसकी पुष्पिका में इस नाम का स्पष्ट उल्लेख मिलता है
'इति श्री सिद्धनागार्जुनविरचिते कच्छपुटे प्रति वश्यं नाम पंचमः पटलः ।' 'योगरत्नमाला' के मूल पाठ में तथा टीकाकार गुणाकर ने इसके रचयिता का 'आचार्य नागार्जुन या नागार्जुनाचार्य' नाम से ही उल्लेख किया है। अतः दोनों की भिन्नता प्रमाणित होती है। आचार्य नागार्जुन जैन परंपरा के विद्वान् थे। दोनों ग्रन्थों में योगों व पाठों की समानता होना स्वाभाविक है, क्योंकि दोनों के विषय समान हैं, अतः तत्कालीन प्रचलिन योग भी एक दूसरे के ग्रन्थ में आ गये हैं। तांत्रिक प्रयोग भी आयुर्वेदीय प्रयोगों के समान अनेक ग्रन्थों के प्राय: समान रूप से मिल जाते हैं ।
धनञ्जय (7वी-8वीं शती) यह दिगम्बर गृहस्थ विद्वान् (श्रावक) थे। द्विसंधान महाकाव्य' के अन्तिम पद्य की टीका में टीकाकार ने धनंजय के पिता का नाम 'वसुदेव', माता का नाम 'श्रीदेवी' और गुरु का नाम 'दश'थ' दिया है।
धनंजय के निम्न ग्रन्थ हैं -- 1. धनंजयनाममाला, 2. अनेकार्थनाममाला, 3. राघव-पाण्डवीय-द्विसंधानमहाकाव्य, 4. विषापहारस्तोत्र, 5. अनेकार्थ-निघण्टु । धनजयनाममाला के अन्तिम पद्य में अकलंक और पूज्यपाद का उल्लेख है -
'प्रमाणमकलकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् ।
द्विसंधानकवेः काव्यं रत्नत्रयपश्चिमम् ।।20।।' अकलंक के प्रमाण, पूज्यपाद के लक्षण और कवि (धनंजय) के द्विसंघान काव्य को 'रत्नत्रय' कहा गया है। इस आधार पर इनका काल 7वीं या 8वीं शती प्रमाणित होता है। आचार्य प्रभाचंड और आचार्य वादिराज (11वीं शती) ने धनंजय के 'द्विसंधान-महाकाव्य' का उल्लेख किया है ।
1 'योगरत्नमाला' भूमिका, पृ. 12-13।
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