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'निघण्टुशेष' पर 17वीं शती में खरतरगच्छीय श्रीवल्लभगणि ने 'टीका' लिखी है | यह ग्रन्थ टीका सहित सन् 1968 में लालभाई दलपतभाई संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ है । मुद्रित प्रति में छः कांडों की श्लोक संख्या क्रमशः 181, 05, 44, 34, 17, 15; कुल 396 श्लोक हैं ।
आयुर्वेद की दृष्टि से यह उपयोगी ग्रंथ है । आचार्य हेमचंद्र का साहित्य बहुत विशाल है । इनकी व्याकरण, कोश, साहित्य और योग पर विस्तृत रचनाएं मिलती हैं। गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह की प्रार्थना पर वि. सं. 1145 के लगभग अपने व राजा के नाम को संयुक्त करते हुए 'सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन' नामक व्याकरण की करीब सवालाख प्रमाण श्लोकों में रचना की थी । शब्दानुशासन (व्याकरण) की सर्वांगपूर्ण रचना करने के बाद इन्होंने कोशग्रंथों की रचना की । 'अभिधानचिंतामणि नाममाला' के प्रारंभ में लिखा है
'प्रणिपत्यार्हतः सिद्धसाङ्गशब्दानुशासनः |
रूढ - यौगिक- मिश्राणां नाम्ना मालां तनोम्यहम् ।।1।।
विद्वानों की मान्यता के अनुसार आचार्य हेमचंद्र ने पहले सिद्धहेमचंद्र शब्दानुशासन (व्याकरण), उसके बाद 'काव्यानुशासन' ( साहित्य - अलंकार) और उसके बाद 'अभिधानचिंतामणिनाममाला' ( कोश ) की रचना की थी ।
आचार्य हेमचंद्र द्वारा विरचित कोश ग्रंथ चार प्रकार के हैं- - 1. एकार्थ, 2. अनेकार्थ, 3. देश्य, 4. निर्घण्ट ( निघण्ट ) |
'प्रभावक - चरित' मे 'हेमचंद्रसूरिप्रबंध' में लिखा है
'एकार्थानेकार्था देश्या निर्घण्ट इति च चत्वारः ।
विहिताश्च नामकोशा भुवि कविता नटयुपाध्यायाः ॥ 8331'
1. अभिधानचिन्तामणिरत्नमाला - यह अमरकोश की शैली पर एकार्थक ( एक ही अर्थ को बताने वाले ) शब्दों का कोश है । इसमें 6 कांडों में रूढ़, यौगिक और मिश्र नामों का संग्रह है । कुल 1541 श्लोक हैं । इसमें वाचस्पति, हलायुध, अमर, यादवप्रकाश वैजयन्ती कोशों के प्रमाण दिये हैं । अमरकोश के अनेक श्लोक उद्घृत हैं । अमरकोश से यह शब्द संख्या में डेढ़ गुना बड़ा है ।
इस पर स्वयं आचार्य हेमचंद्र ने 'तत्वाभिधायिनी' नाम से स्वोपज्ञवृत्ति लिखी है, इसमें 'शेष सग्रह' में अतिरिक्त शब्दों का उल्लेख किया है । वृतिसहित इस कोश की श्लोक संख्या लगभग साढ़े आठ हजार है । इसमें 'व्याडि' के कोश से भी प्रमाण दिये हैं ।
2. अनेकार्थसंग्रह - इस कोश में एक शब्द के अनेक अर्थ बताये गये हैं । इसमें सात कांड हैं । इसकी रचना 'अ. चि. र. माला' के बाद हुई थी, ऐसा इसके प्रथम पद्य से सूचित होता है । इस पर आचार्य हेमचंद्र के शिष्य आचार्य महेन्द्रसूरि ने 13वीं शती
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