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योगमाला । एमपें महामंत्रविद्या-साधन तंत्रप्रयोग सर्व सत्यकरीने लघ्या छ। एवस्तु अगोप्य अगोचरथी राषवी कोईने देषाडवी नहीं। इति श्रेय ।'
गुणाकर को हेमचंद्रसूरि का प्रशिष्य कहा जाता है। दिनेशचन्द्र भट्टाचार्य ने विजयरक्षित द्वारा उद्धृत गुणाकर से योगरत्नमाला की विवृति लिखने वाले गुणाकर को भिन्न माना है । प्रथम गुणाकर वैद्य और आयुर्वेदज्ञ थे, जबकि द्वितीय गुणाकर तांत्रिक थे । परन्तु यह विचार युक्तिसंगत नहीं है ; 'विवृति' में गुणाकर ने आयुर्वेदीय वनस्पतियों
और ओषधियों की गंभीरता और बारीकी से व्याख्या की है । अत: उनका आयुर्वेदज्ञ होना प्रमाणित होता है।
निश्चलकरने चक्रदत्त पर अपनी टीका में गुणाकरकृत 'चरकसंहिता-टीका' (वृत्ति) का उल्लेख किया है। यह 'वृत्ति' अब नहीं मिलती।
आशाधर (1240 ई.) संस्कृत के जैनविद्वानों में आशाधर अग्रणी हैं। यह प्रतिभासंपन्न, विद्वान् और विपुल साहित्य के प्रणेता के रूप में जैन साहित्याकाश में जगमगाते नक्षत्र हैं। इनका काव्य, दर्शन, योग, साहित्य, व्याकरण, न्याय, अलंकार, वैद्यक आदि विषयों पर अधिकार था । इनको 'कलिकालिदास' नाम से जाना जाता है । इनके ग्रन्यों त्रिषष्टिस्मृति, जिनयज्ञकल्प आदि) में इन्होंने अपना परिचय निम्न प्रशस्ति में दिया है -
श्रीमान स्त ‘सपादलक्षविषय:' 'शाकम्भरीभूषण - स्तत्र श्री रतिधाम मण्डलकरं नामास्ति दुर्ग महत् । श्रीरत्न्यामुदपादि तत्र 'विमलव्याघ्र रवालान्वयाच्छीसल्लक्षणतो जिनेन्द्रसमयश्रद्धालुराशाधर : ।। 1।। सरस्वत्यामिवात्मानं सरस्वत्यामजीजनद् । यः पुत्रः छाहडं गुण्यं रंजितार्जुन भूपतिम् ।। 2।। व्याघ्र रवालवंशमरोजहंसः काव्यामृतो घरसपानसुतृप्तगात्र: सल्लक्षणस्य तनयो न यविश्वचक्षुराशाधरो विजयतां कलिकालिदास: ।।3।। म्लेच्छेशेन सपादलक्षविषये व्याप्ते सुवृत्तक्षति - त्रासाद्विन्ध्यनरेन्द्रदोः परिमलस्फूर्जस्त्रिवगौवस । प्राप्तो 'मालवमंडले बहुपरीवारः पुरीमावसन् यो धारामपठज्जिनप्रमितिवाक्शास्त्रे महावीरतः ।।5।।
। प्रियव्रत शर्मा, प्रायुर्वेद का वैज्ञानिक इतिहास, पृ. 213 . D. C. Bhattacharya, New Light on Vaidyaka Literature, Indian
Historical Quarterly, Vol. XXIII, No.1, March. 1947, PP. 123-155.
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