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रोगों के नाशन हेतु मंत्र - प्रयोग दिए हैं । गंडमाला विद्रधि और विस्फोटकों के लिए मंत्र देखिए
दुष्टव्रण, लूताविष, जालगर्दभ,
“ॐ नमो भगवते पार्श्वरुद्राय चंद्रहासेन खड्गेन गर्दभस्य सिरं छिन्दय छिन्दय, दुष्टव्रण हन हन, लूतां हन हन जालागर्दभं हन हन, गण्डमालां हन हन, विद्रधि हन हन, विस्फोटकसर्वान् हन हन फट् स्वाहा ।'
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यह ग्रन्थ धूलिया से एस. के. कोटेचा ने प्रकाशित किया अधिक रह गयी हैं ।
I इसमें अशुद्धियां
हरिपाल ( 1284 ई.)
इनके विषय में विशेष परिचय प्राप्त नहीं होता । इनका 'वैद्यकशास्त्र' नामक ग्रंथ उपलब्ध हुआ है । यह ग्रन्थ 'प्राकृतभाषा' में पद्य ( गाथा ) बद्ध है । ने गुरु- परम्परा या वंश - परिचय आदि का कोई उल्लेख नहीं किया है । में इसका रचनाकाल वि. सं. 134 1 ( 124 ई.) दिया है । अतः 13वीं शती का उत्तरार्ध प्रमाणित होता है । इस ग्रन्थ शिरोरोग आदि चिकित्सा - रोगनाशक औषधियोग दिए गए हैं । कुल 256 पद्य हैं । ग्रंथारंभ में जिनों - तीर्थंकरों के लिए नमस्कार-वचन दिया है. 'मिऊण जिणो विज्जो भवमणेत्राहिफेट्टणसमत्थो । पुण विज्जयं पयासमि जं भणियं पुत्रसूरीहिं ॥1॥ गाहाबधे विरयमि देहिणं रोय-णासणं परमं । 'हरिवालो' जं वुल्लइ तं सिज्झइ गुरुपसाएण ||2||
इसमें लेखक ग्रंथ के अन्त
इनका समय रोगों पर
ग्रन्थांत में बताया है कि इससे पूर्व हरिपाल ने 'योगसार' की रचना की थी । अप्राप्त है ।
यह ग्रंथ
'हरडइ वाति समंजलि तेण सुणीरेण पक्खा लिज्जा । लिंगे वाहि पसामइ भासिज्जइ 'जोयसारेहिं ॥25511 'हरिवाण' य रइयं पुव्वविज्जेहिं जं ज्जि णिद्दिट्ठ | बुहयण तं महु खमियहु हीणहिये जं जि कव्वो य 11256।। विक्कम - णरवइ-काले तेरसयागयाइं एयाले ( 1341 ) । सिय-पोसट्टमि मंदे 'विज्जयसत्थो' य पुण्णो य ॥
इति परा (प्रा) कृत वैद्यक ( शास्त्र ) समाप्तम् ।' प्राकृत की वैद्यक कृति होने के कारण इस ग्रंथ का बहुत महत्व है ।
1 जुगलकिशोर मुख्तार, जैन ग्रन्थ प्रशस्ति-संग्रह, भाग 1, (दिल्ली, 1954) पृ. 221
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