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गाथाओं वाली है, जिसमें प्रारंभ और अन्त के रचनादि के सम्बन्ध में परिचय ज्ञापक पद्य नहीं मिलते । अन्त में केवल 'इतिवैद्यमनोत्सवे' लिखा मिलता है।
वैद्यमनोत्सव की रचना दोहा, सोरठा और चौपाई छंदों में हुई है।
नर्बुदाचार्य-नर्मदाचार्य (ई. 1600) यह गुजरात के निवासी थे । तपागच्छीय साधु कनक के शिष्य थे। तपागच्छ में 'कमल-कलश' शाखा के प्रवर्तक आचार्य कमलकलशसरि हए ।
'श्री तपगछमाहि जशवंत, कमल कलश शाखा बोलत, गछनायक श्री पूज्य प्रमाण, जाणे गगन उदता भाण ।।671 धर्म धुरंधर श्री गुरु नाम, 'कमल कलश' शिष्य अभिराम । महागुणवंत महा गंभीर, पंचमहाव्रत यति सुधीर ।। 68।।
(कोकशास्त्र चतुष्पदी, अन्त के पद्य) 'लघु पोशालिक तपगच्छ-पट्टावली' से ज्ञात होता है कि साधु सुमतिसूरि ने अपने दो शिष्य-इंद्रनंदी और कमलकलश को आचार्य पद दिया था। परन्तु बाद में उनको सूरिमंत्र के अधिष्ठापक देव ने कहा कि इन दोनों को आचार्य पद देना उचित नहीं है, क्योंकि ये गच्छ में भेद करेंगे। इससे सुमति सूरि ने हेम विमलसूरि को नया आचार्य बनाया। सुमतिसूरि के स्वर्गवासी होने के बाद उन दोनों ने अपने अपने नाम से शाखाएं चलायीं । इन्द्रनंदी की शाखा वाले 'कुतबपुरा' और कमलकलश की शाखावाले उन्हीं के नाम से 'कमल कलश' कहलाये। प्राग वाट जाति (पोरवाड) सहसा ने अचलगढ़ (आबूपर्वत) पर महाराज जगमाल के राज्य में चतुर्मुख विहार का निर्माण किया था, उसकी प्रतिष्ठा कमलकल शसूरि के शिष्य जयकल्याणसूरि ने सं. 156 फाल्गुन सुदी 10 को की थी। बीजापुर (जि. मेहसाणा) विद्याशाला की एक पट्टावली में बताया है कि कमलकलश शाखा सं. 1572 में निकली थी।
कमलकलश के शिष्य पंडित मतिलावण्य' और अन्य अनेक शिष्य हुए। उन्हीं में से 'कनक' नामक शिष्य के 'नर्बुदाचार्य' शिश्य हुए । ये भट्टारकयति थे। इन्होंने अपने गुरु के विषय में लिखा है
गछमांहि गुणवंत गंभीर, यतिअत 'कनक' नमै धीर ।
हवा गुरु भटारक जेह, कहुउपमा सवाई तेह ।। शिष्य नरबुदनै करुण कवी, दीधो पद ते उतम धरी ।।
(कोकशास्त्र चतुष्पदी, ग्रंथांत, पद्य 72) 'कोकशास्त्र चतुष्पदी' ग्रथ के अन्त में लेखक ने अपना परिचय दिया है। इनका
1 मोहनलाल दलीचंद देसाई, जैन गुर्जर कविनो, भाग 1, (10.9 ई.) पृ. 326
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