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1073 / 1886-92) परन्तु एक अन्य हस्तप्रति में श्रीवर्द्धमानं प्रणिपत्य मूर्द्धा' के स्थान पर 'श्रीचन्द्रमौलि प्रणिपत्य मूर्ध्ना' ऐसा पाठ है, (वही, ग्रंथांक 184, 934/188487), यह लिपिकार प्रमाद के कारण हुआ है ।
अनूप संस्कृत लाइब्रेरी, बीकानेर में भी इस टीका की हस्तप्रति मोजूद है ।
पं. जिनदास (1551 ई.)
यह वैद्यकशास्त्र में निपुण जैन श्रावक थे । इनका 'होली रेणुकाचरित्र' नामक ग्रन्थ मिलता है । यह रणस्तंभदुर्गं ( रणथंभोर ) के समीप नवलक्षपुर के निवासी थे । शेरपुर के जैन चैत्यालय में संवत् 1608 ज्येष्ठ शुक्ला 10 शुक्रवार को जिनदास ने 51 पद्यों वाली पूर्वकथा को 843 पद्यों में लिखकर पूर्ण किया । पं. जिनदास ने यह ग्रन्थ भट्टारक प्रभाचंद्र के शिष्य धर्मचन्द्र के शिष्य ललितकीर्ति मुनि के है । संभवतः मुनि ललितकीर्ति इनके गुरु थे ।
नाम से अकित किया
में
विशाल जिनमंदिर
ग्रन्थ के अन्तभाग में पं. जिनदास ने अपनी वंश - प्रशस्ति दी है । इनके पूर्वज 'हरिपति' नामक वणिक् हुए जिन्हें पद्मावती देवी का वर प्राप्त था और वह 'पीरोजशाह ' द्वारा सम्मानित थे । इनके वंश में 'पद्म' नामक श्रेष्ठी हुए । इनको 'ग्यासशाह' से बहुमान्यता प्राप्त हुई थी इन्होंने 'शाकंभरी' ( राजस्थान ) नगर बनवाया था । उनका एक पुत्र 'बि' हुआ, वह 'वैद्यराट्' था । उसे 'नसीरशाह' से उत्कर्ष ( सम्मान प्राप्त हुआ था । दूसरा पुत्र 'सुहृजन' भट्टारक जिनचंद्र के पट्ट पर प्रतिष्ठित हुआ और उसका नाम 'प्रभाचंद्र' रखा गया । उसे राजाओं से सम्मान मिला । 'बिझ' का पुत्र 'धर्मदास' हुआ, उसे 'महमूदशाह' ने सम्मान प्रदान किया । वह वैद्यशिरोमणि और कीर्तिवान् हुआ । उसे भी पद्मावती का वरदान प्राप्त था । उसका पुत्र 'रेखा' नामक हुआ, जो वैद्य-कला में निपुण, वैद्यों का स्वामी और लोक में प्रसिद्ध था । उसे 'रणस्तंभ दुर्ग' ( रणथम्भोर) में बादशाह शेरशाह' ने सम्मानित किया था । उनका पुत्र 'जिनदास' हुआ । बुद्धिमान् और अनेक विद्याओं में, विशेषकर आयुर्वेद में निपुण था । जिनदास की माता का नाम 'रिखश्री', पत्नी का नाम 'जिनदासी' और पुत्र का नाम ' नारायणदास' था । 2
जिनदास वंश-परम्परा से वैद्यकविद्या में निपुण और कुशल चिकित्सक था । उनके किसी वैद्यकग्रन्थ का पता नहीं चलता ।
'विद्यते ह्येतयोः पुत्रो 'जिनदासाभिधो' वरः । बुधः सज्जनमर्यादा माननीयों मनीषिणां ॥1521
अतो बहुविद्या आयुर्वेदे विशेषतः ।
afe योऽस्ति महाघीमान् वरिष्ठो हि विवेकिनां 115311 ( हो. रे. च. )
1 जैन ग्रंथ - प्रशस्ति संग्रह, भाग 1, पृ. 32 एवं 63 से 67
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