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धनंजय जैन संस्कृत कोषकारों में सर्वप्राचीन हैं। इनके दो कोष 'नाममाला' और 'अनेकार्थनाममाला' हैं। वीर सेन कृत 'धवलाटीका' में अनेकार्थनाममाला का "हेतावेव प्रकारादि' श्लोक उद्धृत है। धवलाटोका का रचनाकाल शक सं 738 (816 ई.) है। अत: इन कोषों का रचनाकाल 780-816 ई. के मध्य प्रमाणित हाता है।
जैन परम्परा में स्तोत्र, मंत्र और तंत्रों से रोगों, विष और भूतबाधा के निवारण के उपाय बाहुल्येन मिलते हैं। आज भी यति-मुनि इनका उपयोग करते मिलते हैं। धनंजय का विषापहारस्रोत्र' बहुत प्रसिद्ध है। इसमें 40 इन्द्र वज्रा छंद हैं। अनिम पद्य का छंद भिन्न है, जिसमें कर्ता ने अपना नाम दिया है। इसमे प्रथम तीर्थंकर वृषभ की स्तुति की गई हैं। इस स्तंत्र का नाम 14वें पद्य में आये निषापहार' शब्द से हुआ है, इस पद्य में कहा गया है कि हे भगवन् लोग विषापहार मणि, औषधियों, मंत्र और रसाधन की खोज में भटकते फिरते हैं; वे यह नहीं जानते कि ये सब आपके ही पर्यायवाची नाम हैं।'
इस स्तोत्रपर 'न गचन्द्रसूर' और 'पार्श्वनाथ गोम्मट' कृत 'टोकाएं' हैं और 'अबचूरि' तथा देवेन्द्र नि कृत 'विषापहार व्रतोद्यापन' नामक कृतियां मिलती हैं।
- 'नागचंद्रसूरि' कर्नाटक निवासी, ब्राह्मण कुलोत्पन्न और श्रीवत्सगोत्री थे उन्हें 'प्रवादिराज के सरी' विरुद प्राप्त था। यह मूलसंघ, देशीगण. पुस्तकगच्छ के भट्टारक ललित कीर्ति के शिष्य देव चद्र मुनि के शिष्य थे। इनका समय वि. की 16वीं शती माना जाता है।
दुर्गदेव (1032 ई.) यह संयमसेन (संयमदेव) मुनीन्द्र के शिष्य थे। उनकी ही आज्ञा से दुर्गदेव ने 'म र णकर ण्डिका' आदि अनेक प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर रिष्ट-समुच्चय' नामक ग्रन्थ की रचना की है। ग्रन्थ की प्रशस्ति में दुर्गदेव ने स्वयं को 'देशयती' कहा है, अत: ये श्रावकव्रतों के अनुष्ठाता क्षुल्लक साधु प्रतीत होते हैं। यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा में लिखा है। इसकी रचना वि. सं 1089 (ई 1032) श्रावण शुक्ला 11, मूलनक्षत्र में 'श्रीनिवास राजा' के काल में 'कुभनगर' के शांतिनाथ मंदिर में पूर्ण हुई थी
‘संबच्छर इगसहसे बोलीणे ण वयसी इ-संजुत्ते । 1089) । सावण--सुक्के यारसि दियहम्मि मूलरिक्खम्मि ।।260।। सिरि कुभणय रणए ?; लच्छिणि वास--णिवइ-रज्जम्मि । सिरि 'संतिणाहभवणे' मुणि भवियस्स उभे रम्मे ।।26 ।।
इति रिट्ठसमुच्चयसत्थं सम्मत्त ।'
इस ग्रन्थ में 261 पद्य हैं। रिष्ट या अरिष्ट अर्थात् निश्चित मृत्युसूचक लक्षणों, शकुनों को जानने के लिए यह उत्तम ग्रंथ है । आयुर्वेद में रिष्ट ज्ञान का बहुत महत्व है।
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