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अनेक औषधियों-वानस्पतिक, खनिज और जान्तव द्रव्यों का उपयोग बन या गया है । यह ग्रन्थ बहुत उपयोगी है ।
जैन परम्परा में औषधों और तत्र संबंधी प्रयोगों का प्रचलन बहुत प्राचीनकाल से रहा है। अत: आश्चर्ययोगमाला को बाद की रचना मानने में कोई आग्रह नहीं होना चाहिए।
स्पष्ट है कि योगरत्नमाला के प्रयोग गुरुपरंपरागत है। टीकाकार गुणाकर को भी इसी परम्परा से एतद् विषयक ज्ञान प्राप्त हुआ होगा। 'ऋतुमल्ल लनायोनो मप्तदिनावासितं क्रमात्सिद्धम्' (श्लोक 38 में 'सिद्ध गुरुपरंपर या सिद्ध' ऐसा अर्थ गुणा कर ने स्पष्ट किया है। कहीं-कहीं योग की सफलता नागार्जुन की कृपा से होना बताया है-'श्रीनागार्जुनप्रसादादेव योग: साधकानां फलतु ।' श्लोक 41 की टीका में) । इस ग्रन्थ को समझने में गुणाकर की 'विवृति' अत्यंत उपादेय है।
चक्रपाणिदत्त ने अपने चिकित्स' संग्रह' या 'चक्रदत्त' के 'रसायनाधिकार' में मुनि नागार्जुन प्रणीत 'लोहशास्त्र' का संक्षिप्त संस्करण उद्धृत किया है। इसे 'रसेन्द्रचिंतामणि' में भी दिया गया है। यहां 90 आर्याओं मे लोहपाक लोह संस्कार) की विधि विस्तारपूर्वक समझायी गयी है । यह 'अमृतसार लोह' कहलाता है। प्रकरण के प्रारम्भ में लिखा है
नागार्जुनो मुनीन्द्रः शशास यल्लोहशास्त्रमति गहनम् ।
तस्यार्थस्य स्मृतये वयमेत द्विशदाक्षरब्रूमः ।।' इसका उपसंहार करते हुए बताया गया है कि 90 आर्याओं श्लोकों) में, सात प्रकार की विधियों (साध्यसाधनपरिमाणविधि, लोहमारणविधि स्थालीपाक विधि पुटनविधि, प्रधान निष्पत्तिपाकविधि, अभ्रकविधि, भक्षणविधि) के द्वारा गुरु परम्परा से उपदिष्ट अज्ञान-विपरीतज्ञान-सशय से रहित अनुष्ठान , ग्रन्थ संदर्भ) को, मुनि रचितशास्त्र को पार करने के लिए सोर लेकर, बताया गया है। इसको कोई भी 'षटकर्मा' अन्य बांधवों के उपकार के लिए कर सकता है। 'षट्कर्मा शब्द जैनी और श्रोत्रिय (ब्राह्मण) के लिए प्रयुक्त होता है।
'आर्याभिरिह नवत्या सप्तविधिना यथावदाख्यातम् । अमतिविपर्ययसंशयशून्यमनुष्ठानमुन्नीतम् ।।12।। मुनि रचितशास्त्रपारं गत्वा सारं तत: समुद्धृत्य । निबबन्ध बान्धवानामुपकृतये कोऽपि षट्कर्मा ।। 125।।' शिवदाससेन ने टीका में लिखा है -
"षट्कर्मा श्रोत्रियः उक्त हि-"याजनं यजनं दानं विशिष्टाच्च परिग्रहः ।
अध्यापनमध्ययनं श्रोत्रियः षड्भिरेव च ॥ इति ॥" जैनी भी 'षट्कर्मा' कहलाता है ।
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