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वर्णित किया है। अर्धमागधी भाषा उनके समय तक संभवतः कुछ अप्रचलित हो चुकी थी। देशभर में सर्वत्र संस्कृत की मान्यता और प्रचलन था । अत: उग्रादित्य द्वारा अपने ग्रन्थ को सर्वलोक भोग्य और सम्मान्य बनने हेतु इसकी संस्कृत में रचना करनी पड़ी।
स्वयं ग्रन्थकार की प्रशस्ति के आधार पर-“यह कल्याणकारक नामक ग्रंथ अनेक अलंकारों से युक्त है, सुन्दर शब्दों से ग्रथित है, सुनने में सुखकर है, अपने हित की कामना करने वालों की प्रार्थना पर निर्मित है, प्राणियों के प्राण, आयु, सत्त्व, वीर्य, बल को उत्पन्न करने वाला और स्वास्थ्य का कारणभूत है। "पूर्व के गणधरादि द्वारा प्रतिपादित 'प्राणावाय' के महान् शास्त्र रूपी निधि से उद्भूत है।" अच्छी युक्तियों या विचारों से युक्त है। जिनेन्द्र भगवान् तिर्थंकर) द्वारा प्रतिपादित है। ऐसे शास्त्र को प्राप्त कर मनुष्य सुख प्राप्त करता है।"
"जिनेन्द्र द्वारा कहा हुआ यह शास्त्र विभिन्न छंदों (वृत्तों) में रचित प्रमाण, नय और निक्षेों का विचार कर सार्थक रूप से "दो हजार पांचसो तेरासी छंदों" में रचा गया है और जब तक सूर्य, चंद्र और तारे मौजूद हैं तब तक प्राणियों के लिए सुखसाधक बना रहेगा।" _ 'प्राणावाय' का प्रतिपादक होने का प्रमाण देते हुए उग्रादित्य ने कल्याणकारक में प्रत्येक परिच्छेद के अंत में लिखा है
"जिस में सम्पूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, जिसके इहलोक-परलोक के लिए प्रयोजन- भूत अर्थात् साधनरूपी दो सुन्दर तट हैं, ऐसे जिनेन्द्र के मुख से बाहर निकले हुए शास्त्ररूपी सागर की एक बूद के समान यह शास्त्र ( ग्रंथ ; है। यह जगत्
1 क. का. प. 25154 सर्वार्धाधिकमागधीयविलसद्भाषाविशेषोज्ज्वलात् । प्रारणावायमहागमादवितथं संगृह्य संक्षेपतः ।। उग्रादित्यगुरुर्गुरुर्गुरुगुणरुद्रासि सौख्यास्पदं । शास्त्रं संस्कृतभाषया रचितवानित्येष भेदस्तयोः ।। - 2 क. का. 25155-56
सालंकारं सुशब्दं श्रवणसुखमथ प्राथितं स्वार्थविद्भिः । प्राणायुस्सत्त्ववीर्यप्रकटबलकर प्राणिनां स्वस्थ हेतुम् ।। निध्युद्ध तं विचारक्षममिति कुशलाः शास्त्रमेतद्ययावत् । कल्याणाख्यं जिनेंद्र विरचितमधिगम्याशु सौख्यं लभते ।। 54।। अव्यर्धद्विसहस्रकैरपि तथाशीतित्रयरसौत्तरैवतरसंवारितरिहाधिक महावृत्तैजिनेंद्रोदितः। प्रोक्तं शास्त्रमिदं प्रमाणनयनिक्षेपैविचार्यार्थवज्जीयाच्च द्रविचद्रतारकमलं सौख्यास्पद
प्राणिनाम् ।।56।।
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