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12) कालपाक-कालांतर में यथासमय जो पककर स्वयं उदय में आकर फल देता है, वह 'कालपाक' है।
जिस प्रकार वृक्ष के फल स्वयं पकते हैं और बुद्धिमान व्यक्तियों द्वारा पकाये भी जाते हैं। उसी प्रकार दोषों का पाक भी 'उपाय (चिकित्सा) और कालक्रम' से- दो प्रकार से पक्व होता है। दोष या रोग के आमत्त्व को औषधियों द्वारा पकाना 'उपाय'पाक' कहलाता हैं और कालांतर में (अपने पाककाल में) स्वयं ही (बिना किसी औषध
के)-पकना 'कालपाक' कहलाता है। इसलिए लिखा है-'जीव : आत्मा) अपने कर्म से प्राप्त होने वाले पापपुण्य रूपी फल को बिना प्रयत्न के अवश्य ही प्राप्त करता है। . पाप और पुण्य के कारण ही दोषों का प्रक्रोम और उपशम होता है। क्योंकि ये दोनों ही मुख्य कर्म हैं। अर्थात् रोग के प्रति दोषप्रकोप व दोषशमन गौण (निमित्त) कारण हैं।
जीवस्स्वकर्माजितपुण्यपापफलं प्रयत्नेन विनापि भुक्ते ।
दोषप्रकोपोपशमौ च ताभ्यामुदाहृतौ हेतुनिबंधनौ तौ ॥ (क. का., 7/1.0)
(6) कल्याणकारक में शारीरविषयक वर्णन विस्तार से नहीं मिलता, किन्तु 20वें परिच्छेद में भोजन के बारह भेद, दश औषधकाल, स्नेहमाक आदि, रिष्टों का वर्णन करने के साथ शरीर के मर्मों का वर्णन किया गया है। (7) इस शास्त्र (प्राणावाय या आयुर्वेद) के दो प्रयोजन बताये गए है-स्वस्थ का स्वास्थ्यरक्षण और रोगी का रोगमोक्षण । इन सबको संक्षेप से इस ग्रंथ में कहा गया है
'लोकोपकारकरणार्थमिदं हि शास्त्रं शास्त्रप्रयोजनमपि द्विविधं यथावत् । । । स्वास्थस्य रक्षणमथामयमोक्षणं च संक्षेपतः सकलमेवनिरुप्यतेऽत्र ॥
. (क. का., 1/24) चिकित्सा के आधार जीव हैं। इनमें भी मनुष्य सर्वश्रेष्ठ जीव हैं । 'सिद्धांततः प्रथितजीवसमासभेदे पर्याप्तसंजिवरपंचविधेन्द्रियेषु । तत्रापि धर्मनिरता मनुजा प्रधानाः क्षेत्रे च धर्मबहुले परमार्थजाताः ।।
- (क. का., 1/26) जैनसिद्धांतानुसार जीव के 14 भेद हैं 1 एकेंद्रिय सूक्ष्म पर्याप्त, 2 एकेंद्रियसूक्ष्म अपर्याप्त, . 3 एकेन्द्रिय बादर पर्याप्त, 4 एकेंद्रिय बादर अपर्यात्त, 5 द्वीन्द्रिय पर्याप्त, 6 द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, 7 श्रीन्द्रियपर्याप्त, 8 त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, 9 चतुरीन्द्रिय पर्याप्त, 10 चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, 11 पंचेन्द्रिय असंज्ञी पर्याप्त, 12 पंचेन्द्रिय असंज्ञी अपर्याप्त, 13 पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्त, 14 पंचेन्द्रिय संज्ञी अपर्याप्त । (1) जिसको बाहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा व मन-इन 6 पर्याप्तियों में यथासंभव पूर्ण प्राप्त हुए हों उन्हें 'पर्याप्तजीव' कहते हैं । जिन्हें वे पूर्ण प्राप्त न हुए
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