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'प्राणाकाय' परम्परा में ज्ञान का मूल तीर्थंकरों की वाणी को माना गया है। यह परम्परा इस प्रकार चलती है
तीर्थंकरों की वाणी (भागमा गणधर और प्रतिमणधर
श्रुतकेवली
बाद में ऋषि-मुनि इस प्रकार आयुर्वेद की मान्य परम्परा और प्राणावाय-परम्परा में यह अंतर है । (2) कल्याणकारक में कहीं पर भी चिकित्सा में मद्य, मांस और मधु का प्रयोग नहीं बताया गया है । जैन-मतानुसार ये तीनों वस्तुएं असेव्य हैं । मांस और मधु के प्रयोग में खीव-हिंसा का विचार भी किया जाता है। मद्य जीवन के लिए अशुचिकर, मादक और अशोभनीय माना जाता है। आसव- अरिष्ट का प्रयोग तो कल्याणकारक में आता है, जैसे-प्रमेहरोगाधिकार में आमलकारिष्ट आदि ।
_आयुर्वेद के प्राचीन संहिताग्रन्थों में मद्य, मांस और मधु का भरपूर व्यवहार किया गया है। चरक आदि में मांस और मांसरस से संबंधित अनेक चिकित्साप्रयोग दिये गये हैं। . मद्य को अग्निदीप्तिकर और आशुप्रभावशाली मानते हुर अनेक रोगों में इसका विधान किया गया है। राजयक्ष्मा जैसे रोगों में तो मांस और मद्य की विपुलगुणकारिता स्वीकार की गई है। मधु अनुपान और सहपान के रूप में अनेक औषधियों के साथ प्रयुक्त होता है तथा मधूदक, मध्वासव नादि का पानार्थ व्यवहार वर्णित है । . (3) चिकित्सा में वानस्पतिक और खनिज द्रव्यों के प्रयोग वर्णित हैं। वानस्पतिक द्रव्यों से निर्मित स्वरस, क्वाथ, कल्क, चूर्ण, वटी, आसव-अरिष्ट, घृत और तेल की कल्पनाएं दी गई हैं। क्षार निर्माण और क्षार का स्थानीय और आभ्यंतर प्रयोग भी बताया गया है। अग्निकर्म, सिरावेध और जलौकावचारण का विधान भी दिया गया है ।
अनेक प्रकार के खनिज द्रव्यों का औषधीय प्रयोग कल्याणकारक में मिलता है। (4) यदि इस ग्रन्थ का रचनाकाल 8वीं शती सही है, तो यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि रस (पारद) और रसकर्म (पारद का मूर्छन, मारण और बंध, इस प्रकार त्रिविधकर्म, रससंस्कार, रस-प्रयोग) का प्राचीनतम प्रामाणिक उल्लेख हमें इस ग्रंथ में प्राप्त होता है। इस पर एक स्वतंत्र अध्याय ग्रन्थ के 'उत्तरतंत्र' में 24वां परिच्छेद 'रसरसायनविध्यधिकार' के नाम से दिया गया है। कुल 56 पद्यों में पारद संबंधी 'रसशास्त्रीय' सब विधान वर्णित हैं। (5) जैन सिद्धांत का अनुसरण करते हुए कल्याणकारक में सब रोगों का कारण पूर्णकृत 'कर्म माना गया है।
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