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जैन-परम्परा में सिद्ध-विद्या, योग और रसायनविद्या अत्यंत प्राचीनकाल से प्रचलित रही है।
'सिद्धपाहुड' (सिद्धप्राभृत) नामक किसी प्राचीन ग्रन्थ में अंजन, पादलेप, गुटिका आदि का वर्णन था। यह ग्रन्थ अब नहीं मिलता । 'कंकालयरसाध्याय' में भी रसकर्म, गुटिका और प्रजन के 25 2 प्रकार माने गये हैं। इनसे सिद्धियां (सफलताएं) और चमत्कारों की शक्ति प्राप्त होती थी। इन सिद्धियों के बारे में अनेक उदाहरण मिलते हैं। पादलिप्तसूरि और उनके शिष्य नागार्जुन पादलेप करके आकाशगमन करते थे। आर्य सुस्थितसूरि के दो क्षुल्लक शिष्य नेत्रों में अंजन लगाकर अदृश्य होकर दुर्भिक्ष के समय चंद्रगुप्त मौर्य राजा के साथ बैठकर भोजन करते थे । आर्य समितसूरि ने योगचूर्ण से नदी के प्रवाह को रोककर ब्रह्मद्वीप के पांच सौ तापसों को प्रतिबोध दिया था। 'समराइच्चकहा' (भय 6) में कथानक आता है कि चंडरुद्र' 'परदिठिमोहिणी' नामक चोगुटिका को पानी में घिस कर आंखों में अंजन लगाता था, जिससे लक्ष्मी अदृश्य हो जाती थी।
संभव है पादलिप्तसूरि को ऐसा ही पादलेप का कोई सिद्ध योग प्राप्त हो, जिससे वह आकाश में विचर सकते थे।
पादलिप्त ने पाटलिपुत्र के राजा मुरुण्ड की दीर्घकालीन शिरोवेदना को घुटनों पर अंगुली घुमाकर शांत कर दी थी। इस प्रसंग की गाथा 'वेदनाशामक मंत्र' के रूप में प्रसिद्ध हो गयी। इस राजा की सभा में पादलिप्तसूरि के बुद्धिचातुर्य के अनेक प्रसंग मिलते हैं । राजा मुरुण्ड कनिष्क का सूबेदार था ।
पाललिप्त के एक शिष्य आचार्य स्कन्दिल थे । प्रसिद्ध रसायनज्ञ नागार्जुन भी इनके शिष्य थे। पादलिप्त की सेवा करके उन्होंने सिद्ध-विद्या एवं रसायन में निपुणता प्राप्त की थी। वे भी पादलिप्त के समान पादलेप द्वारा आकाश-विचरण करते थे। उन्होंने गुरु के सम्मान में शत्रुजय पर्वत की तलहटी में 'पादलिप्तनगर'- पालित्रायण (वर्तमान पालीताणा) नगर बसाया था।
पादलिप्त द्वारा विरचित किसी वैद्यक या रसायन के ग्रन्थ का पता नहीं चलता है। रसायन-सिद्धि से पादलिप्त ने दीर्घ आयु प्राप्त की थी।
__नागार्जुन (जैन सिद्ध नागार्जुन, दूसरी एवं तीसरी शती)
प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन (प्रथम शती ई.) एवं सिद्ध नागार्जुन (सातवीं शती) के अतिरिक्त जैन परम्परा में भी नागार्जुन हुए हैं। बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन अश्वघोष और कुषाण-सम्राट कनिष्क के समकालीन थे और इन्होंने कश्मीर के कुडलवन
1 वीरशासन के प्रभावक प्राचार्य, पृ. 22-23 -- ----- . ज. सा. बु., इति., भाग 5, पृ. 206
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