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रूप प्रकट हुआ होगा । नाम साम्य मात्र के कारण तत्कालीन जनसमाज में जैन रससिद्ध नागार्जुन और चौरासी सिद्धों में प्रसिद्ध सिद्ध नागार्जुन को एक ही माना जाने लग गया हो । चौरासी सिद्धों वाला नागार्जुन भी रसविद्या में निपुण था परन्तु वह नालन्दा विश्वविद्यालय से आजीवन संबद्ध रहा । उसका काल 7वीं शती है । जबकि जैन सिद्ध नागार्जुन दूसरी-तीसरी शती में हो चुका था । फिर भी, अलबेरूनी ने जिस नागार्जुन का उल्लेख किया है, उसका पृथक्करण सौराष्ट्र क्षेत्र का निवासी बताने से स्वतः हो जाता है ।
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अलबेरूनी के काल में ही नागार्जुनकृत रसविद्या विषयक ग्रन्थ दुर्लभ हो चुका था । वह किस नाम वाला ग्रंथ था ? यह बताना बहुत मुश्किल है ।
ग्रन्थ-मुनि कान्तिसागर ने लिखा है - " मेरे ज्येष्ठ गुरु-बन्धु मुनि श्री मंगलसागरजी महाराज साहब के ग्रन्थ-संग्रह में 'नागार्जुनकल्प' नामक एक हस्तलिखित प्रति है, उसमें भारतीय रस- चिकित्सा एवं अनेक प्रकार के महत्वपूर्ण व आश्चर्यजगक रासायनिक प्रयोगों का संकलन है । इसकी भाषा प्राकृत मिश्रित अपभ्रंश है | यह कृति सिद्धनागार्जुन (जैन) की होनी चाहिए, क्योंकि प्राकृत भाषा में होने से ही, मैं इसे उनकी रचना नहीं मानता, पर कल्प में कई स्थानों पर ' पादलिप्तसूरि' का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया गया है, जो इनके सब प्रकार से गुरु थे । प्रश्न रहा अपभ्रंश प्रतिलिपि का, इसका उत्तर भी बहुत सरल है । अत्यंत लोकप्रिय कृतियों में भाषाविषयक परिवर्तन होना स्वाभाविक बात है ।' ( ' खण्डहरों का वैभव',
T. 300-301) उनका मत है कि - 'जिस ग्रन्थ की चर्चा उसने / अलबेरूनी ने) की है, मेरी राय में वह 'नागार्जुनकल्प' ही होना चाहिए ।' (वही, पृ. 303 )
मुझे राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, उदयपुर में 'नागार्जुनकल्प' की जो प्रति देखने को मिली वह यद्यपि प्राकृत - अपभ्रंश भाषा में लिखी हुई है, किन्तु ( 1 ) न तो वह बहुत बड़ी रचना है, न इसमें रसचिकित्सा का और न आश्चर्यजनक रस या औषध योगों का विशेष वर्णन है, ( 2 ) न इसमें कहीं पर भी पादलिप्तसूरि का नामोल्लेख है । यद्यपि मेरे द्वारा देखी गई यह प्रति कुछ अंशों में त्रुटित है ( इसमें दो पत्र अप्राप्य हैं), तथापि आदि - अंत में तथा उपलब्ध अंश में पादलिप्त का उल्लेख नहीं मिलता । मुनिजी द्वारा उल्लिखित प्रति मैंने नहीं देखी । संभवतः ये दोनों ग्रन्थ भिन्न हों । 'योगरत्नमाला' (आश्चर्य योगरत्नमाला) भी जैन सिद्ध नागार्जुन की बतायी जाती है । इस पर सं. 1296 (1239 ई.) में श्वेतांबर सिद्धघटीय भिक्षु गुणाकर ने 'विवृति' लिखी है | आचार्य प्रियव्रत शर्मा ने लिखा है- 'It is also not improbable that some other Nagarjuna may be a tantrika under the JainSect whom Gunakara a Jain Monk, has followed. ' ( योगरत्नमाला, Introduction, P.11)। तांत्रिक विधियों पर सूत्र रूप में यह ग्रन्थ लिखा गया है । ग्रन्थ के प्रारंभ में नागार्जुन ने अपने गुरु को ही स्मरण किया है और उनको भास्कर के तुल्य जगत् में देदीप्यमान माना है ।
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