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का एक मात्र हितसाधक है (अतः इसका नाम 'कल्याणकारक' है)।" शास्त्र की परम्परा
'कल्याणकारक' के प्रारंभिक भाग (प्रथम परिच्छेद के आरंभ के दस पद्यों में). आचार्य उग्रादित्य ने मर्त्यलोक के लिए जिनेन्द्र के मुख से आयुर्वेद (प्राणावाय) के प्रकटित होने का कथानक इस प्रकार दिया है -
भगवान् ऋषभदेव प्रथम तीर्थकर थे। उनके समवसरण में भरत चक्रवर्ती आदि ने पहुंच कर लोगों के रोगों को दूर करने और स्वास्थ्यरक्षण का उपाय पूछा। तब प्रमुख गणधरों को उपदेश देते हुए भगवान् ऋषभदेव के मुख से सरस शारदादेवी बाहर प्रकटित हुई। उनकी वाणी में पहले पुरुष, रोग, औषध और काल-इस प्रकार संपूर्ण आयुर्वेद शास्त्र के चार भेद बताते हुए इन वस्तुचतुष्टयों के लक्षण, भेद, प्रभेद आदि सब बातों को बताया गया। इन सब तत्त्वों को साक्षात् रूप से 'गणधर' ने समझा। गणधरों द्वारा प्रतिपादित शास्त्र को निर्मल, मति, श्रुति, अवधि व मनःपर्यय ज्ञान को धारण करने वाले योगियों ने जाना।
इस प्रकार यह संपूर्ण आयुर्वेदशास्त्र ऋषभनाथ तीर्थंकर के बाद महावीर पर्यन्त तीर्थंकरों तक चला आया। यह अत्यन्त विस्तृत है, दोषरहित है, गंभीर वस्तुविवेचन से मुक्त है। तीर्थंकरों के मुख से निकला हुआ यह ज्ञान 'स्वयंभू' है और अनादिकाल से चला आने के कारण 'सनातन' है। गोवर्धन भद्रबाहु आदि श्रुतकेवलियों के मुख से अल्पांम ज्ञानी या अंगांमज्ञानीचार मुनियों द्वारा साक्षात् सुना हुमा है। अर्थात् श्रुतकेवलियों ने अन्य मुनियों को इसं ज्ञान को दिया था।"
1 क. का. प्रत्येक परिच्छेद के अंत में
"इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ।। उभयभवार्थसाधनतटयभासुरतो। निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ।।".. (मा) “प्रग्भाषितं जिनवररधुना मुनींद्रोग्रादित्यपण्डितमहागुरुभिः प्रणीतम् ॥
(क. का. 25/53) क का प. 1/1-10 शास्त्रपरम्परागमनक्रम - दिव्यध्वनिप्रकटितं परमार्थजातं साक्षात्तथा गणधरोऽधिजगे समस्तम्। । पश्चात् गणाधिपनिरूपितवाक्प्रपंचमष्टार्धनिर्मलधियो मुनयोऽधिजग्मुः ।।१।। एवं जिनांतरनिबंधनसिद्धमार्गादायातमायातमनाकुलमर्थमाढम् । स्वायंभुवं सकलमेव सनातनं तव साक्षाच्छ तं श्रुतवलः श्रुतकेवलिभ्यः ।।10।
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