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"धमार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् ।" जैन-ग्रन्थ 'मूलवात्तिक' में आयुर्वेद-प्रणयन के सम्बन्ध में कहा गया है-"आयुर्वेद प्रणयनान्यथानुपत्तेः ।" अर्थात् अकाल जरा (वार्धक्य) और मृत्यु को उचित उपायों द्वारा रोकने के लिए आयुर्वेद का प्रणयन किया गया है।
मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका रूपी चतुर्विध जैन-संघ के लिए चिकित्सा उपादेय है । आगमों का अभ्यास, पठन-पाठन प्रारम्भ में जैन यति-मुनियों तक ही सीमित था । जैन धर्म के नियमों के अनुसार यति-मुनियों और आर्यिकाओं के रुग्ण होने पर वे श्रावक-श्राविका से अपनी चिकित्सा नहीं करा सकते थे । वे इसके लिए किसी से न तो कुछ कह सकते थे और न कुछ करा सकते थे । अत एव यह आवश्यक था कि वे अपनी चिकित्सा स्वयं ही करें अथवा अन्य यति-मुनि उनका उपचार करें। इसके लिए प्रत्येक यति-मुनि को चिकित्सा विषयक ज्ञान प्राप्त करना जरूरी था। कालान्तर में जब लौकिक विद्याओं को यति-मुनियों द्वारा सीखना निषिद्ध माना जाने लगा तो दृष्टिवाद संज्ञक आगम, जिसमें अनेक लौकिक विद्याएं शामिल थीं, का पठन-पाठन-क्रम बन्द हो गया । शनैः शनैः उसका लोप ही हो गया। यह परिस्थिति ई. चौथी और पांचवी शती में आगमों के संस्करण और परिष्कार के लिए हुई क्रमशः 'माथुरी' और 'वाल भी' वाचनाओं से बहुत पहले ही हो चुकी थी। अतः इन वाचनाओं (मुनि-सम्मेलनों) में दृष्टिवाद को छोड़कर अन्य एकादश आगमों पर तो विचार-विमर्श हुआ, परन्तु 'दृष्टिवाद' उपलब्ध नहीं हो सका । अत: उसे व्युच्छिन्न मान लिया गया। इस प्रकार इस अंग की परम्परा सर्वथा लुप्त हो गयी अथवा विकलरूप में कहीं कहीं (विशेषतः दक्षिण भारत में) प्रचलित रही।
सम्पूर्ण 'दृष्टिवाद' में धर्माचरण के नियम, दर्शन और नीति सम्बन्धी विचार, विभिन्न कलाएं, ज्योतिष, आयुर्वेद (चिकित्सा शास्त्र), शकुन शास्त्र, निमित्तशास्त्र, यन्त्रतन्त्र आदि विज्ञानों, शिल्पों और विषयों का समावेश होता है । दुर्भाग्य से अब दृष्टिवाद का कोई ग्रन्थ नहीं मिलता। बाद के साहित्य में उनका विकीर्णरूप से उल्लेख अवश्य मिलता है । महावीर-निर्वाण (ईसवी पूर्व 527) के लगभग 160 वर्ष बाद 'पूर्वो' सम्बन्धी ज्ञान क्रमशः नष्ट हो गया । समस्त चौदह पूर्वो का अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ही था । वह महाप्राणव्रत हेतु नेपाल जा चुका था। अतः कुछ मुनियों को इसके ज्ञान हेतु नेपाल भेजा गया। केवल स्थूलभद्र ही पूर्वो का ज्ञान प्राप्त कर सका। अतः शनैः शनैः इस ज्ञान का नष्ट होना स्वाभाविक था।
दिगम्बर मान्यता के अनुसार भद्रबाहु के 181 वर्ष बाद हुए विशाखाचार्य से धर्मसेन तक दस 'पूर्वो' (अंतिम चार पूर्वो को छोड़कर) का ज्ञान प्रचलित रहा। उसके बाद उनका ज्ञाता कोई आचार्य नहीं रहा। 'षट्खण्डागम' के वेदनात्मक अध्याय के प्रारम्भिक सूत्र में दस पूर्वो और चौदह पूर्वो के ज्ञाता मुनियों को नमस्कार किया गया है। इस सूत्र की टीका मे वीरसेनाचार्य ने स्पष्ट किया है कि 'पहले दस पूर्वो के
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