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25. 'जम्ब्वादिनम् ( पूज्यपादीये), पृ. 247 26. 'गरूडान्जनम्' ( पूज्यपादीये), पृ. 266 27. 'स्थौल्यान्तकरस:' ( पूज्यपादीये), पृ. 274 28. 'पारदादिगुटिका' ( पूज्यपादीये), पृ. 29
29. परिणामशूललक्षणम् ( पूज्यपादीये) पृ. 294 - 295 30. अपस्मारोन्मादानां प्रसिद्धनस्यानि ( पूज्यपादीये, पृ. 305-306 31. कालस्फोटादिलक्षणचिकित्से ( पूज्यपादीये), पृ 348
32. भृंगराजतैलम्, पृ. 357
'तैल रहस्यं परमं वलीपलितनाशनम् (पूज्यपादीये ) '
इस संकलन से ज्ञात होता है कि पूज्यपाद के 'पूज्यपादीय' ग्रंथ में निदान और चिकित्सा का विस्तार से वर्णन होगा । इनमें अधिकांश रसयोग सम्मिलित थे । अनेक योगों के अन्त में 'पूज्यपादेन भाषित' ऐसा उल्लेख होने से इन योगों का प्रथम निर्माण (आविष्कार) करने का श्रेय पूज्यपाद को है ।
कल्याणकारक --
जैन सिद्धान्त-भवन, आरा (बिहार) से
यह ग्रंथ 'अकलंकसंहिता' नाम से प्रकाशित हुआ है । ग्रंथ के प्रारम्भ में दिये गये पद्यों से इस ग्रंथ का नाम 'कल्याणकारक' और 'वैद्यसारसंग्रह' या 'सारसंग्रह' सूचित होता है। इसमें वाग्भट, सुश्रुत, हागतमुनि, रुद्रदेव आदि आचार्यों के ग्रन्थों से मत व वचन लेकर मधुसंचय किया गया है । इसे विजय उपाध्याय द्वारा निर्मित बताया गया है |
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इसमें समन्तभद्र के रसयोग (पृ. 1 से ), पूज्यपाद के रस, चूर्ण, गुटिका आदि योग (पृ. 6 से 32 ) तथा गोम्मटदेव कृत 'मेरुदण्डतत्र' से नाडीपरीक्षा और ज्वर निदान आदि का वर्णन है (पृ. 33 से आगे ) । यह ग्रथ पूज्यपाद द्वारा विरचित नहीं लगता । यह एक संग्रह-ग्रंथ है । गुम्मटदेव का काल पूज्यपाद से परवर्ती है ।
पूज्यपाद ने कल्याणकारक की रचना शारीरिक दोषों के निवारण हेतु की थी । इसमें जैन परंपरा का अनुसरण करते हुए विभिन्न जैन तीर्थंकरों के चिन्हों से परिभाषाएं बतायी है ।
1 'नमः श्रीवर्धमानाय निर्धूतकलिलात्मने । कल्य' रणकारको ग्रंथः पूज्यपादेन भाषितः || X X सर्वं लोकोपकारार्थं कथ्यते सारसंग्रहः । श्रीमद् वाग्भटसुश्रुतादिविमल श्रीवैद्यशास्त्रार्णवे, भास्वत् .... सुसारसंग्रहमहावामान्विते संग्रहे । मन्त्रज्ञैरुपलभ्य सद्विजयगरणोपाध्याय सन्निमिते, ग्रन्थेऽस्मिन् मधुपाकसारनिचये पूर्ण भवेन्मंगलम् ।
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