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अर्थात् - 'प्रसिद्ध नृपतृरंग वल्लभ (राय) महाराजाधिराज की सभा में जहां अनेक प्रकार के प्रसिद्ध विद्वान् विद्यमान थे, मांस भक्षण की प्रधानता का षोषण करने वाले वैद्यकविद्या के विद्वानों (वैद्यों) के सामने इस जैनेन्द्र ( जैन मतानुयायी) वैद्य ने उपस्थित होकर मांस की निष्फलता ( निरर्थकता ) को पूर्णतया सिद्ध कर दिया । इस प्रकार, सभी विशिष्ट, दुष्ट मांस के भक्षण की पुष्टि करने वाले वैद्य - शास्त्रों में मास का निराकरण करने के लिए, उग्रादित्याचार्य ने इस प्रकरण को नृपतुरंग वल्लभ राजा की सभा में उद्घोषित किया ।'
इस वर्णन में जिस राजा के लिए उग्रादित्याचार्य ने 'नृपतुरंग', 'वल्लभ', 'महाराजाधिराज', 'वल्लभेन्द्र' विरुदों का प्रयोग किया है, वह स्पष्टरूप से राष्ट्रकूटवंशीय प्रतापी सम्राट अमोघवर्ष प्रथम ( 814 - 877 ई ) ही था । क्योंकि ये सभी विरुद उसके लिए ही प्रयुक्त हुए हैं, जैसा कि हम पूर्व में लिख चुके हैं । अतएव श्री नाथू म प्रेमी का यह कथन उचित प्रतीत नहीं हाता- 'उग्रादित्य राष्ट्रकूट अमोघवर्ष के समय के बतलाये गये हैं, परन्तु इसमें संदेह है । उसकी प्रशस्ति की भी बहुत-सी बातें संदेहास्पद हैं ।
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कृति-परिचय
इसमें कुल
उग्रादित्याचार्य की एक मात्र वैद्यककृति 'कल्याणकारक' मिलती है ।
25 'परिच्छेद' (अध्याय ) हैं और उसके बाद परिशिष्ट के दो अध्याय हैं - । रिष्टाध्याय और 2 हिताहिताध्याय | इन परिच्छेदों के नाम इस प्रकार हैं
(अ) स्वास्थ्यरक्षरणाधिकार के अन्तर्गत परिच्छेद -
10 श्लेष्मव्याधि12 महामयचिकित्सित भगंदर ) तथा क्षुद्ररोग
1 शास्त्रावतार, 2 गर्भोत्पत्तिलक्षण, 3 सूत्रव्यावर्णनम् (शारीर का वर्णन ), 4 धान्यादिगुणागुण - विचार, 5 अन्नपानविधि, 6 रसायनविधि | (आ) चिकित्साधिकार के अन्तर्गत परिच्छेद 7 व्याधिसमुद्देश 8 वातरोगचिकित्सित, 9 पित्तरोगचिकित्सित, चिकित्सित, 11 महामयचिकित्सित ( प्रमेह, कुष्ठ, उदर ), ( वातव्याधि, मूढगर्भ, अर्श), 3 महामयचिकित्सित ( अश्मरी, चिकित्सित ( वृद्धि ), 14 क्षुद्ररोगचिकित्सित ( उपदंश, शूकदोष, श्लीपद, अपची, गलगंड, नाडीव्रण, अर्बुद, ग्रंथि, विद्रधि, क्षुद्ररोग), 15 क्षुद्ररोगचिकित्सित ( शिरोरोग़, कर्णरोग, नासारोग, मुखरोग, नेत्ररोग), 16 क्षुद्ररोगचिकित्सित ( श्वास, कास, विरस, तृष्णा, छर्दि, अरोचक, स्वरभेद, उदावर्त, हिक्का, प्रतिश्याय, 17 क्षुद्ररोगचिकित्सित (हृद्रोग, क्रिमिरोग, अजीर्ण रोग, मूत्राघात, मूत्रकृच्छ, योनिरोग, गुल्म, पांडुरोग, कामला, मूर्च्छा. उन्माद, अपस्मार ), 18 क्षुद्ररोगचिकित्सित (राजयक्ष्मा, मसूरिका, बालग्रह, भूततंत्र ), 19 सर्वविषचिकित्सित, 20 शास्त्रसंग्रहतंत्रयुक्ति ।
1 श्री नाथूराम प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, पृ. 87
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