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मूलसंघ के पंचस्तूपान्वय के आचार्य थे। जिनसेन और दशरथगुरु के प्रसिद्ध शिष्य गुण भद्र हुए। उत्तरपुराण की प्रशस्ति (श्लोक सं. 11-12) में आचार्य गुणभद्र ने लिखा है- 'जिस प्रकार चंद्रमा का सधर्मी सूर्य होता है, उसी प्रकार जिनसेन के सधर्मी या सतीर्थ दशरथ गुरु थे, जो कि संसार के पदार्थों का अवलोकन कराने के लिए अद्वितीय नेत्र थे। इनकी वाणी से जगत् का स्वरूप अवगत किया जाता था।'
गोम्मटदेव मुनि यह दक्षिण भारत के दिगम्बर आचार्य थे। इनका 'मेरूतंत्र' या 'मेरूदण्डतंत्र' नामक वैद्यग्रन्थ प्राप्त है। इसके प्रत्येक परिच्छेद के अन्त में पूज्यपाद का सम्मानपूर्वक नामोल्लेख हुआ है।
अत: ये पूज्यपाद से परवर्ती हैं। जैन सिद्धान्तभवन आरा (बिहार) से प्रकाशित 'सारसंग्रह' में गोम्मटदेवकृत 'मेरुदण्डतंत्र' से नाडीपरीक्षा और ज्वर निदान आदि को उद्धृत किया गया है।
कल्याणकारक और उसका कर्ता उग्रादित्याचार्य
दक्षिण के जैनाचार्यों द्वारा रचित 'आयुर्वेद' या 'प्राणावाय' के उपलब्ध ग्रंथों में 'उग्रादित्य' का 'कल्याणकारक' सबसे प्राचीन, मुख्य और महत्वपूर्ण है। प्राणावाय की प्राचीन जैन-परम्परा का दिग्दर्शन हमें एकमात्र इसी ग्रन्थ से प्राप्त होता है। यही नहीं, इसका अन्य दृष्टि से भी बहुत महत्व है। ईसवी आठवीं शताब्दी में प्रचलित चिकित्सा प्रयोगों और रसौषधियों से भिन्न और सर्वथा नवीन प्रयोग हमें इस ग्रन्थ में देखने को मिलते हैं।
__सबसे पहले 1922 में नरसिंहाचार्य ने अपनी पुरातत्व संबंधी रिपोर्ट में इस ग्रंथ के महत्व और विषयवस्तु के वैशिष्ट्य पर निम्नांकित पंक्तियों में प्रकाश डाला था, तब से अब तक इस पर पर्याप्त ऊ पाह किया गया है"Another manuscript of some interest is the medical work 'KALYANAKARAKA of Ugraditya, a Jaina author, who was a contemporary of the Rastrakuta King Amoghavarsha I and of the Eastern Chalu
1 कल्याणकारक, प्रस्तावना, पृ. 38 2 'कल्याणकारक' ग्रन्थ का प्रकाशन सोलापुर से सेठ गोविंदजी रावजी दोशी ने सन् 1940 में किया है। इसमें मूल संस्कृत पाठ के अतिरिक्त पं. वर्द्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री कृत हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित किया गया है। इसके संपादन में चार हस्तलिखित प्रतियों से सहायता ली गयी है।
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