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अत: निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि उग्रादित्याचार्य मूलतः तेलंगाना (आंध्र प्रदेश) के निवासी थे और उनकी निवास भूमि ‘रामगिरि' (विशाखापट्टन जिले की रामतीर्थ या रामकोंड) नामक पहाड़ियां थी। यहीं पर जिनालय में बैठकर उन्होंने कल्याणकारक की रचना की थी। उनका काल 8वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध था।
उपर्युक्त विवेचन से यह तथ्य भी प्रकट होता है कि उग्रादित्याचार्य को वास्तविक संरक्षण वेंगि के पूर्वी चालुक्य राजा विष्णुवर्धन चतुर्थ ( 764-799 ई.)से प्राप्त हुआ था।
615 ई. में चालुक्य सम्राट पुलकेशी द्वितीय ने आंध्रप्रदेश पर अधिकार कर वहां अपने छोटे भाई कुब्ज विष्णुवर्धन को प्रान्तीय शासक नियुक्त किया था। इस देश की र'जधानी 'वेंगी' थी। पुलकेशी के अतिमकाल में वेंगी का शासक स्वतंत्र हो गया और उसने वेंगी के पूर्वी चालुक्य राजवंश की स्थापना की। इस राजवंश के नरेशों में जैनधर्म के प्रति बहुत आस्था थी। इसी वश में पूर्वोक्त विष्णुवर्धन चतुर्थ ( ई. 764799) हुआ। राष्ट्रकूटों के साथ इसके अनेक युद्ध हुए थे । विष्णुवर्धन चतुर्थ जैनधर्म का अनुयायी था। इसकी मृत्यु के बाद इस वंश में जो राजा हुए वे दुर्बल थे । राष्ट्रकूट सम्राट् गोविन्द तृतीय (793-81 ई.। और उसके पुत्र सम्राट् अमोघवर्ष प्रथम (814-878 ई. । ने अनेक बार वेंगि पर आक्रमण कर पूर्वी चालुक्यों को पराजित किया। अत: यह संभावना उचित ही प्रतीत होती है कि चालुक्य सम्राट विष्णुवर्धन चतुर्थ की मृत्यु के बाद जब पूर्वी चालुक्यों का वैभव समाप्त होने लगा और राष्ट्रकूट सम्राट अमोघवर्ष प्रथम की प्रसिद्धि और जैनधर्म के प्रति आस्था बढ़ने लगी तो उग्रादित्याचार्य ने अमोघवर्ष प्रथम की राजसभा में आश्रय प्राप्त किया हो। संभव है, अमोघवर्ष की मद्य-मांस प्रियता को दूर करने के लिए उन्हें उसकी राजसभा में उपस्थित होना पड़ा हो अथवा उन्हें सम्राट ने आमंत्रित किया हो। अत: "कल्याणकारक'' के अत में नृपतुग अमोघवर्ष का भी उल्लेख है।
ऐमा स्पष्ट ज्ञात होता है कि उग्रादित्याचार्य "कल्याणकारक" की रचना रामगिरि में ही 799 ई. तक कर चुके थे। परन्तु बाद में जब अमोघवर्ष प्रथम की राजसभा में आये तो उन्होंने मद्य-मास- सेवन के निषेध की युक्तियुक्तता प्रतिपादित करते हुए उसके अंत में 'हिताहित' नामक एक नया अध्याय और जोड़ दिया ।
डा. ज्योतिप्रसाद जैन का भी यही विचार है
"आचार्य उग्रादित्य ने अपने कल्याणकारक नामक वैद्यक ग्रंथ की रचना 800 ई. के पूर्व ही कर ली थी किंतु अमोघवर्ष के आग्रह पर उन्होंने उसकी राजसभा में आकर अनेक वैद्यों एव विद्वानों के समक्ष मद्य-मांस-निषेध का वैज्ञानिक विवेचन किया और इस ऐतिहासिक भाषण को 'हिताहित अध्याय' के नाम से परिशिष्ट रूप में अपने ग्रंथ में सम्मिलित किया।"1
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1 डा. ज्योतिप्रसाद जैन, भारतीय इतिहासः एक दृष्टि, पृ. 302
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