Book Title: Jain Aayurved Ka Itihas
Author(s): Rajendraprakash Bhatnagar
Publisher: Surya Prakashan Samsthan

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Page 64
________________ kya King Kali Vishnuvardhan V. The work opens with the stateinent that the science of Medicine is divided into two parts, namely prevention and cure, and gives at the end a long discourse in Sanskrit prose on the uselessness of a flesh diet, said to have been delivered by the author at the court of Amoghvarsha, where many learned men and doctors had assembled": (Mysore Archaeological Report, 1922, Page 23) अर्थात् – “अन्य महत्वपूर्ण हस्तलिखित ग्रन्थ उग्रादित्य का चिकित्साशास्त्र पर 'कल्याणकारक' नामक रचना है। यह विद्वान् जैन लेखक और राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष प्रथम तथा पूर्वी चालुक्य राजा कलि विष्णुवर्धन पचम का समकालीन था। ग्रंथ के प्रारंभ में कहा गया है कि चिकित्साविज्ञान दो भागों में बंटा हुआ है-जिनके नाम हैं - 'प्रतिबंधक चिकित्सा' और 'प्रतिकारात्मक चिकित्सा'। तथा, इस ग्रन्थ के अन्त में संस्कृत गद्य में मांसाहार की निरर्थकता के संबंध में विस्तृत संभाषण दिया गया है, जो, बताया जाता है कि, अमोघवर्ष की राजसभा में लेखक ने प्रस्तुत किया था, जहां पर अनेक विद्वान् और चिकित्सक एकत्रित थे।" ग्रन्थकार-परिचय--ग्रन्थ 'कल्याणकारक' में कर्ता का नाम उग्रादित्य दिया हुआ है। उनके माता-पिता और मूल निवास आदि का कोई परिचय प्राप्त नहीं होता । परिग्रहत्याग करने वाले जैन साधु के लिए अपने वंश-परिचय को देने का विशेष आग्रह और आवश्यकता भी प्रतीत नहीं होती। हां, गुरु का और अपने विद्यापीठ का परिचय विस्तार से उग्रादित्य ने लिखा है । गुरु-उग्रादित्य ने अपने गुरु का नाम 'श्रीनन्दि' बताया है। वह संपूर्ण आयुर्वेदशास्त्र (प्राणावाय) के ज्ञाता थे। उनसे उग्रादित्य ने प्राणावाय में वर्णित दोषों, दोषज उग्ररोगों और उनकी चिकित्सा आदि का सब प्रकार से ज्ञान प्राप्त कर इस ग्रंथ (कल्याणकारक) में प्रतिपादन किया है ।। इससे ज्ञात होता है, श्रीनन्दि उस काल में 'प्राणावाय' के महान् विद्वान् और प्रसिद्ध आचार्य थे। 1 क. का. प. 20, श्लोक 84 'श्रीनंद्याचार्यादशेषागमज्ञाद् ज्ञात्वा दोषात् दोषजानुग्ररोगान् । तभैषज्यक्रमं चापि सर्व प्राणावायादुधत्य नीतम् ।। (प्रा) क. का., प. 21, श्लोक 3 श्रीनंदिप्रभवोऽखिलागमविधि: शिक्षाप्रदः सर्वदा । प्रारणावायनिरूपितमर्थमखिलं सर्वज्ञसंभाषितं ।। सामग्रीगुरणता हि सिद्धिमधुना शास्त्र स्वयं नान्यथा। [ 54 ]

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