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मान्यता और प्रश्रय दिया। यह उनके द्वारा इन विषयों पर निर्मित अनेक ग्रन्थों से ज्ञात होता है। 4. जैन विद्वानों ने अपने धार्मिक सिद्धांतों के आधार पर ही मुख्य रूप से चिकित्साशास्त्र का प्रतिपादन किया है। जैसे-अहिंसा के आदर्श पर उन्होंने चिकित्सा में मद्य, मांस और मधु के प्रयोग का सर्वथा निषेध किया है, क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अनेक प्राणियों की हिंसा होती है। इस अहिंसा का आपत्काल में भी पूर्ण विचार रखा गया है। 'कल्याणकारक' में तो मास-भक्षण के निषेध की युक्तियुक्त विस्तृत विवेचना स्वतंत्र रूप से की गई है। 5. चिकित्सा में जैनों द्वारा वनस्पति, खनिज, क्षार, लवण, रत्न, उपरत्न आदि का विशेष रूप से प्रचलन किया गया। इसप्रकार केवल वानस्पतिक और खनिज द्रव्यों से निर्मित योगों का जैन विद्वानों द्वारा चिकित्सा कार्य में विशेष प्रचलन किया गया । यह आज भी सामान्य वैद्य जगत् में व्यवहार में परिलक्षित होता है । 6. सिद्धयोग चिकित्सा स्वानुभूत विशिष्ट योगों द्वारा चिकित्सा) प्रचलित होने से जैन वैद्यक में त्रिदोषवाद और पंच भूतवाद के गंभीर तत्वों को समझने और उनका रोगों से व चिकित्सा से सम्बन्ध स्थापित करने की महान और गूढ़ आयुर्वेद-प्रणाली का ह्रास होता गया और केवल लाक्षणिक चिकित्सा ही अधिक विकसित होती गई। जैनाचार्यों ने स्वानुभूत एवं प्रायोगिक प्रत्यक्षीकृत प्रयोगों और साधनों द्वारा रोग-मुक्ति के उपाय बताये हैं। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए परीक्षणोपरान्त सफल सिद्ध हुए प्रयोगों और उपायों को उन्होंने लिपिबद्ध कर दिया। जैनधर्म के श्वेताम्बर और दिगम्बर-दोनों ही सम्प्रदायों के आचार्यों ने इस कार्य में महान् योगदान किया है ।
अनेक जैन वैद्यों के चिकित्सा एवं योगों सम्बन्धी ‘गुट के' (परम्परागत नुस्खों के संग्रह, जिन्हें 'आम्नाय-ग्रंथ' कहते हैं भी मिलते हैं, जिनका अनुभूत-प्रयोगावली के रूप में अवश्य ही बहुत महत्व है। ". जैन सिद्धांतानुसार रात्रिभोजन-- निषेध आदि विषयों की युक्तिपुरःसर चर्चा भी मिलती है। 8. शरीर को स्वस्थ, हृष्टपुष्ट और निरोग रखकर केवल ऐहिक सुख भोगना ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य नहीं है, अपितु शारीरिक स्वास्थ्य के माध्यम से आत्मिक स्वास्थ्य व सुख प्राप्त करना ही जैनाचार्यों को अभिप्रेत था। इसके लिए उन्होंने भक्ष्या भक्ष्य, सेवासेव्य आदि पदार्थों का भी उपदेश दिया है। इसका एक मात्र उद्देश्य यह है कि मनुष्य जीवन का अन्तिम लक्ष्य पारमार्थिक स्वास्थ्य प्राप्त कर केवलत्व (मोक्ष) प्राप्त करना है। 9. अनेक जैन-वैद्यक ग्रंथों में प्रदेश-विशेष में होने वाली स्थानीय वनौषधियों के प्रयोग भी मिलते हैं । इनका ज्ञान उपयोग और व्यवहार की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।
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