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पीड़िका होने पर उसकी जलन मिटाने के लिए मिट्टी का सिंचन किया जाता था ।1
___ मानसिक चिकित्सा . मानसिक रोगों से पीड़ित रोगियों की चिकित्सा का भी आयोजन किया जाता था। भूत आदि द्वारा विक्षिप्तचित्त हो जाने पर रोगी को कोमल बन्धन से बांधकर शस्त्रं आदि से रहित स्थान में रखने का विधान है। यदि कदाचित् ऐसा स्थान न मिले, तो रोगी को पहले से ही खुदे हुए कुएं में डाल दें, अथवा नया कुआं खुदवा कर उसमें रख दें और कुएं को ऊपर से ढंकवा दें, जिससे रोगी बाहर निकलकर न जा सके। यदि वात आदि के कारण धातुओं का क्षोभ होने से विक्षिप्तचित्तता हुई हो तो रोगी को स्निग्ध और मधुर भोजन दें और उपलों की राख पर सुलाये । यदि कोई साधु विक्षिप्तचित्त होकर भाग जाये तो उसकी खोज की जाय, तथा यदि वह राजा आदि का रिश्तेदार हो तो राजा से निवेदन किया जाये।
'साध्वी के यक्षाविष्ट होने पर भी भूत-चिकित्सा का विधान जैन आगमों में मिलता है।
देवव्यपाश्रय चिकित्सा जिसमें बिना किसी द्रव्य या औषधि की सहायता से रोग की चिकित्सा की जाती है, वह देवव्यपाश्रयचिकित्सा कहलाती है ।
नक्षत्रों के आधार पर शुभ-अशुभ बताने वाले, स्वप्न-शास्त्री, वशीकरण के पारगामी, अतीत-अनागत और वर्तमान को बताने वाले नैमित्तिक तथा यांत्रिक सर्वत्र पाये जाते थे। लोगों का इनमें बहुत विश्वास था। सर्प, बिच्छु आदि के काटने पर मंत्रों का उपयोग होता था ।
अन्यान्य विषों को उतारने के लिए तथा अनेक शारीरिक पीड़ाओं के उपशमन के लिए मंत्रों का प्रयोग होता था । ये लोग गांव-गाव में घूमा करते थे। संवाहन चार प्रकार से किया जाता था ।
1. हड्डियों को आराम देने वाला - अस्थिसुख ।
1 प्रोपनियुक्ति 341, पृ. 129-अ. * व्यवहारभाष्य 2।। 22-25; निशीथभाष्यपीठिका 173 । बृहत्कल्पभाष्य 6162-2, द्र. चरकसंहिता नि. अ. 9 4 दशकालिक 8 51; हरिभद्रीयटीकापत्र-236 5 जिनदासचूर्णो, पृ. 340 • वही, पृ. 113
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