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पूज्यपाद (464-524 ई.)
जैनाचार्यों में पूज्यपाद का स्थान व्याकरण, वैद्यक, योगशास्त्र, रसशास्त्र और दर्शन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है । यह दिगम्बर-सम्प्रदाय के जैन आचार्य थे । इनका वास्तविक नाम 'देवनन्दि' था । 'जैनेन्द्रबुद्धि' और 'पूज्यपाद' – ये दो नाम इनकी विशेषताओं को प्रदर्शित करने की दृष्टि से प्रचलित हुए थे । संक्षेप में इनको 'देव' नाम से भी जाना जाता था । श्रवणबेलगोला के 40 वें शिलालेख में लिखा है - 'यो 'देवनन्दिप्रथमाभिधानो बुद्ध्या महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः ||2| 'श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुगं यदीयम् ॥13॥
'जैनेन्द्रं निजशब्दभागमतुलं सर्वार्थसिद्धिः परा सिद्धांते निपुणत्वमुद्धकवितां जैनाभिषेक:
स्वकः ।
'छन्दः सूक्ष्मधियं समाधिशतकं स्वास्थ्यं यदीयं विदामाख्यातीह स पूज्यपादमुनिपः पूज्यो मुनीनां गणैः ॥4॥
इनका पहला नाम 'देवनन्दि' था, बाद में यह बुद्धि की महत्ता के कारण 'जिनेन्द्रबुद्धि' और देवताओं व मुनियों द्वारा इनके चरणों की पूजा किये जाने से 'पूज्यपाद' कहलाये | वस्तुतः ये लोक- पूजित होने के कारण पूज्यपाद कहलाने लगे । आचार्य शुभचंद्र ने अपने 'ज्ञानार्णव' के प्रारंभ में देवनन्दि का स्मरण करते हुए लिखा है—
कायवाक्चित्तसंभवम् ।
'अपाकुर्वन्ति यद्वाच: कलकमङ्गिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ।।
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1 यशः कीर्तिर्यशोनन्दी देवनन्दी महामति ।
श्री पूज्यपादाख्यो गुरणनन्दी गुरगाकरः ||
(नन्दीसंघपट्टावली)
लगभग ऐसी ही बात चक्रपाणिदत्त ने चरकसंहिता को अपनी टीका के प्रारम्भ में चरक मुनि के संबंध में कही है
“पातञ्जल महाभाष्यचरकप्रतिसंस्कृतैः ।
मनोवाक्कायदोषारणां हर्त्रेऽहिपतये नमः ।। "
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पातंजल ' योगशास्त्र', व्याकरण पर 'महाभाव्य', चरकसंहिता के 'प्रतिसंस्कार' की रचना द्वारा क्रमशः मन, वाणी और शरीर के दोषों दूर करने के वाले भगवान् शेषनाग को नमस्कार है ।
कहा जाता है कि योग, व्याकरण और वैद्यक पर रचना करने वाले पतंजलि तथा चरक मुनि दोनों ही शेषनाग के अवतार थे ।
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