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2. इसमें जैन पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग और संकेत भी उपयोग किये गये हैं । इससे जैन सिद्धांतों का प्रकाशन भी होता है । जैसे 'रत्नत्रयोषध' कहने से जैन सिद्धांतानुसार सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चरित्र - इन तीन रत्नों का ग्रहण होता है, दूसरे अर्थ में पारद, गंधक और पाषाण ये तीनों पदार्थ लिये जाते हैं । इनसे निर्मित रसायन वात, पित्त, कफ - त्रिदोषों को नष्ट करता है । अतः ये औषध हैं । भी 'रत्नत्रयौषध' रखा गया है ।
इस रसायन का नाम
3. औषधि - निर्माण - कल्पना में द्रव्यों के मानों को तीर्थंकरों की संख्या और चिह्नों के द्वारा सूचित किया गया है । जैन तीर्थंकरों के पृथक्-पृथक् लांछन या चिह्न माने गए हैं। तत् तत् चिह्न से तत् तत् तीर्थंकर की और उनके संख्या की सूचना मिलती है । जैसे रससिंदूर निर्माण हेतु कितना पारद व गंधक लिया जाय, इसके लिए कहा है - 'सूतं केसरि गंधकं मृगनवासारद्रुमं । यहां सूत अर्थात् पारद की मात्रा 'केसरि' ओर गंधक की मात्रा 'मृग' शब्द से कही गयी है। केसरि महावीर का चिह्न है और महावीर 24वें तीर्थंकर हैं । अतः पारद की मात्रा 24 भाग लेनी चाहिए । मृग 16वें तीर्थंकर का चिह्न होने से गंधक की मात्रा 16 भाग लेनी चाहिए । इन सांकेतिक और पारिभाषिक शब्दों का 'सिद्धांत रसायनकल्प' में सर्वत्र उपयोग हुआ है ।
इस ग्रंथ में
' रससिंदूर' के गुण इस प्रकार बताये गये हैं
'सिंदूरं शुद्धसूतो विषधरशमनं रक्त रेणुश्च वर्णं । वातं पित्तेन शीतं तपनिलसहितं विंशतिर्मेहं हन्त्रि || तृष्णोदावर्त गुल्मं पिशगुदररजो पांडुशोफोदराणां । कुष्ठं च अष्टादशघ्नं सकलवणहरं सन्निशूलाग्रगंधि || दीपाग्नि धातुपुष्टि वडवशिखिकरं दीपनं पुष्टितेजं । बालस्त्रीसौख्यसंगं जरामरणरुजाकांतिमायुः प्रवृद्धि ।। वाचाशुद्धि सुगानां (?) सकलरुजहरं देहशुद्धि रसेंद्रः । पुष्पायुर्वेद
आचार्य समंतभद्र ने इसमें 18000 प्रकार के परागरहित पुष्पों से निर्मित रसायनौषधि-प्रयोगों के विषय में बताया है । वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री ने लिखा है" इस पुष्पायुर्वेद ग्रंथ में क्रि. पू. 3 रे शतमान की कर्णाटक लिपि उपलब्ध होती है जो कि बहुत मुश्किल से बांचने में आती हैं । इतिहास संशोधकों के लिए यह एक अपूर्व व उपयोगी विषय है | अठारह हजार जाति के केवल पुष्पों के प्रयोगों का ही जिसमें कथन हो, उस ग्रंथ का महत्व कितना होगा यह भी पाठक विचार करें । अभी तक पुष्पायुर्वेद का निर्माण जैनाचार्यों के सिवाय और किसी ने भी नहीं किया है संसार में यह एक अद्भुत चीज है ।" "
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आयुर्वेद .
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कल्याणकारक, प्रस्तावना, पृ. 36
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2
कल्याणकारक, प्रस्तावना, पृ. 38
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