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प्रभाचंद्र के 'कथाकोश' में भी कहा गया है कि समन्तभद्र ने अपनी 'भस्मक' व्याधि के शमन के लिए वेश बदलकर अनेक स्थानों पर भ्रमण किया, अंत में वाराणसी के शिव मंदिर में विपुल नैवेद्य से उनका रोग दूर हुआ। वहां के राजा ने उनको शिव को प्रणाम करने की आज्ञा दी, तब उन्होंने स्वयम्भूस्तोत्र' की रचना की। उसी समय 'चन्द्रप्रभस्तुति' के पठन के समय शिवलिंग से चंप्रप्रभ की मूर्ति प्रकट हुई। श्रवण बेलगोला के उक्त शिलालेख के अनुसार बाद में उन्होंने पाटलिपुत्र, मालव, सिन्धु, टक्क (पंजाब), कांची, विदिशा और करहाटक (कर्हाड, महाराष्ट्र) में वादों में विजय प्राप्त कर जैन मत को प्रतिष्ठित किया ।।
उन्होंने जैन साहित्य में संस्कृत के उपयोग को पुरस्कृत किया। ताकिक दृष्टि से जैन मत को प्रतिष्ठापित किया ।
'आप्तमीमांसा' या 'देवागमस्तोत्र' इनकी 'युगप्रवर्तक' रचना है। इसमें महावीर के उपदेशों का तर्क-भूमि पर प्रतिपादन करते कुछ 'स्याद्वाद' का सर्वप्रथम विस्तार से वर्णन किया गया है। ‘युक्त्यनुशासन' में विविध एकांत वादों को दोषयुक्त प्रमाणित करते हुए 'अनेकान्त' वाद को स्पष्ट किया था। 'स्वयम्भूस्तोत्र' और जिनस्तुतिशतक में चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति है। 'रत्नकरण्ड' में श्रावकों के लिए सम्यक् 'दर्शन' 'ज्ञान' और 'चरित्र' के रूप में गृहस्थ-धर्माचरण का विस्तार से स्पष्टीकरण किया गया है। समंतभद्र का साहित्य विस्तृत नहीं है, परन्तु मौलिक होने से बहुत प्रतिष्ठित है ।
इनका काल वीर नि. सं. की दसवीं शती (373 से 473 ई.) माना जाता है । कुछ विद्वान ई. दूसरी या तीसरी शती मानते हैं। ऐसी मान्यता है कि समन्तभद्र कर्नाटक के कारवार जिले के होन्नावर ताल्लुके (तहसील) के गेरसप्पा के समीप 'हाडाल्लि' में पीठ बनाकर निवास करते थे। इस स्थान को 'संगीतपुर' भी कहते हैं । कन्नड भाषा में 'हाड्ड' का अर्थ संगीत और 'हाल्ली' का अर्थ नगर या पुर है । अतः हाड ल्लि का संस्कृत नाम संगीतपुर है। यहां चन्द्रगिरि और इन्द्रगिरि नामक दो पर्वत हैं। इन पर समंतभद्र तपश्चरण करते थे। गेरसप्पा के जंगल में अब भी शिलानिर्मित चतुमुंख मंदिर, ज्वालामालिनी मंदिर और पार्श्वनाथ का जैन चैत्यालय है। वहां दूरी तक प्राचीन खंडहर, मूर्तियां आदि मिलते हैं, जिससे वहां विशाल बस्ती होना प्रमाणित होता है। ऐसी किंवदन्ती है कि यहां जंगल में एक 'सिद्धरसकूप' है । कलियुग में धर्मसंकट पैदा होने पर इस रसकूप का उपयोग होगा। 'सर्वांजन' नामक अंजन आंख में आंजने से इस कूप को देखा जा सकता है। इस अंजन का प्रयोग समन्तभद्र के 'पुष्पायुर्वेद' ग्रथ में दिया गया है - अनन के निर्माण हेतु पुष्प भी इसी वन में मिलते हैं।
1 वीर शासन के प्रभावक प्राचार्य, पृ. 32-33
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