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समन्तभद्र वैद्यक और रसविद्या में भी निपुण थे। उनके अनेक रसयोग प्रचलित हैं।
समन्तभद्र से पूर्व भी अनेक जैन-मुनियों ने वैद्यकग्रंथों की रचना की थी । समन्तभद्र ने अपने सिद्धांत रसायनकल्प' ग्रंथ में लिखा है
'श्रीमद्भल्लातकाद्री वसति जिनमुनि: सूतवादे रसाब्जं' अन्यत्र भी उन्होंने लिखा है
'रसेन्द्र जैनागमसूत्रबद्धं' इससे जैन आगम में पूर्व से अनेक वैद्यक व रसवाद संबंधी ग्रंथ विद्यमान होना प्रमाणित होता है। वे सब रचनाएं अब कालकवलित हो चुकी हैं। समन्तभद्र भी अच्छे चिकित्सक थे। उनके निम्न वैद्यक-ग्रंथों का पता चलता है, ये ग्रंथ अलभ्य हैं -
समन्तभद्र के वैद्यक-ग्रंथ 1. अष्टांगसंग्रह (अष्टांग आयुर्वेद)
आयुर्वेद के आठ अंगों पर विषय का निरूपण करने वाला यह विस्तृत ग्रंथ था। 'कल्याणकारक' के रचयिता उग्रादित्याचार्य (8वीं-9वीं शती) ने समन्तभद्र के अष्टांगसंग्रह के आधार पर संक्षेप में इस ग्रंथ का प्रतिपादन किया है
'अष्टांगमप्यखिलमत्र समंत भद्रैः प्रोक्तं सविस्तरवचोविभवैविशेषात् । संक्षेपतो निगदितं तदिहात्मशक्त्या कल्याणकारककमशेषपदार्थयुक्तम् ॥
(प. 20186) यह ग्रन्थ अप्राप्य है। 2. सिद्धान्तरसायनकल्प
यह ग्रन्थ भी अनुपलब्ध है। इसमें अठारह हजार श्लोक होना बताया जाता है । परन्तु अब इसके कुछ वचन इधर-उधर विकीर्ण रूप से ग्रन्थों में उद्धृत मिलते हैं। इनको एकत्रित करने पर उन श्लोकों की संख्या भी दो-तीन हजार तक पहुंच जाती हैं ।
इसमें आयुर्वेद के आठ अंगों-काय, बाल, ग्रह, ऊवाग, शल्य, दंष्ट्रा, जरा और विष का विवेचन था ।
यह ग्रन्थ जैन आयुर्वेद के ग्रन्थों में अत्यन्त महत्वपूर्ण था। इसमें जैन सिद्धांतानुसार विषयों का विवेचन है। 1. सभी औषधयोग हिंसावजित है। अहिंसा जैनधर्म का मुख्य तत्व है। उसका इसमें सर्वत्र पालन किया गया है ।
। जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग 5, पृ. 2261
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