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लिए अश्वमक्षिका का उपयोग किया जाता था।1 कफ की व्याधियों में सोंठ का उपयोग किया जाता था।
औषधियां रखने के लिए शंख और सीप आदि काम में लिये जाते थे ।
ओषधियों की मात्रा का ध्यान रखा जाता था । शतपाक, सहस्रपाक आदि पकाये हुए तेल अनेक रोगों में काम आते थे ।
शिरोरोग से बचने के लिए धूम्रपान किया जाता था । धूम्रपान की नली को 'धूम्रनेत्र' कहते थे । शरीर, अन्न और वस्त्र को सुवासित करने के लिए धूम्र का प्रयोग करते थे । रोग की आशंका से बचने के लिए भी धूम्र का प्रयोग किया जाता था।
बल और रूप को बढ़ाने के लिए वमन, बस्तिकर्म और विरेचन का प्रयोग होता था । बस्ति का अर्थ है, इति । दृति से अधिष्ठान (मलद्वार) में स्नेह आदि दिया जाता था। विषचिकित्सा
सों की बहुलता होने से उनके काटने का भय भी अधिक था । अतः उनके काटने की चिकित्सा करनी पड़ती थी।
सांप काटने पर या विसूचिका (हैजा) या ज्वर से ग्रस्त हो जाने पर साधु को साध्वी का मूत्रपान कराया जाता था । किसी राजा को महाविषले सर्प ने काट लिया तो रानी का मूत्रपान कराने से वह स्वस्थ हो गया। सर्प दंश होने पर मंत्र पढ़कर कटक (अष्ट धातु के बने हुए) बांध देना, या मुह में मिट्टी भर कर सर्प के काटे हुए स्थान को चूस लेना, या उसके चारों ओर मिट्टी का लेप करना या रोगी को मिट्टी खिलाना जिससे खाली पेट में विष का प्रभाव नहीं हो, उपचार किये जाते थे। 10
1 ओघनियुक्ति, 367, पृ. 124-अ.
आवश्यकचूर्णी, पृ. 405 । अोनियुक्ति, 366 4 बृहत्कल्पभाष्य पीठिका, 289 5 जिनदासचूर्णी, पृ. 259
लिक 319, जिनवासचूर्णी पृ. 115; हरिभद्रीयटीका, पत्र 118 ' जिनदासचूणी, पृ. 115
स्थानांगसूत्र 41341, पृ. 250 (वृश्चिक, मंडूक, उरग और नर-ये चार प्रकार के सर्प बताये गये हैं। इनके छः प्रकार के विष-परिणाम होते हैं, स्थानांगसूत्र, 6,
पृ. 355 अ. 9 बृहत्कल्पसूत्र 5137; भाष्य 515987-88 10 निशीथभाष्यपीठिका 170 (बौद्धों के महावग्ग 61219 में सर्पदंश पर गोबर, मूत्र,
राख और मिट्टी के उपयोग का विधान है।
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