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प्रयोगकर्ता का नाम भी मिलता है, अथवा लेखक को वह योग जिस विशिष्ट व्यक्ति या वैद्य से प्राप्त हुआ था, उसके नाम का उल्लेख होता है। इनमें स्थानीय रूप से मिलने वाली और प्रयोग में आने वाली ओषधियों, वनस्पतियों और द्रव्यों का परिचय व प्रयोगविधि भी प्राप्त होती है। पीतांबर कृत 'आयुर्वेदसारसंग्रह' इसका अच्छा उदाहरण है। इनमें अनियमित योग संग्रह भी मिलते हैं। कुछ ग्रंथों में रोगानुसार योगों का व्यवस्थित संकलन है। 3. मूल संस्कृत ग्रन्थ का पद्यमय अनुवाद - संस्कृत भाषा दुरूह होने से प्रायः अनेक विद्वानों ने आयुर्वेद के उपयोगी प्रचलित ग्रन्थों का पद्यमय भाषानुवाद किया । लक्ष्मीवल्लभ ने शभुनाथकृत 'कालज्ञान' (1684 ई.), मूत्रपरीक्षा का, समरथ ने वैद्यनाथपुत्र शान्तिनाथ की 'रसमंजरी' का ( 1707 ई.), रामचंद्र यति ने शाङ्गधरसंहिता का 'वैद्यविनोद' नाम से (1669 ई.) पद्यमय भाषाबंध किया है । अनुवादित ग्रंथ का नाम या तो वही रखा जाता है, जो मूल संस्कृत ग्रंथ का है अथवा उसका नया नाम रख दिया जाता है। 4. मूल संकृत ग्रन्थों के गद्यमय अनुवाद मा टीका-संस्कृत में लिखी गई मूल विषयवस्तुको जनसाधारण को समझाने की दृष्टि से उसपर भाषा में गद्य में टीका लिखी गई हैं । इनमें विषय को विस्तार से या संक्षेप से समझाया गया है। इसी आधार पर ये टीका-ग्रंथ तीन रूपों में मिलते हैं
1 बालावबोध, 2 स्तबक, 3 टब्बा । 1. बालावबोध-'सरल और सुबोध टीका को बालावबोध कहते हैं। इसमें मूलपाठ का विवेचन विस्तार से, प्रायः छोटे-छोटे वाक्य बनाकर किया जाता है। इसी से अल्पमति वाले सामान्य जन भी इसको आसानी से समझ सके । जैन परम्परा में बालाबोध लिखने की प्राचीन काल से परिपाटी मिलती है। पहले ये धर्मग्रंथों पर लिखे गये । कहीं-कहीं लेखक आपने स्वतंत्र विचार, दृष्टांत और अनुभव या कथाएं भी लिखता है । इससे लोक साहित्य में इनका महत्व है । दीपकचंद्र वाचक ने कल्याणदासकृत 'बालतंत्र' पर 'बालावबोध' नामक गद्य में भाषाबंध लिखा है। 2. स्तबक-यह बालावबोध से कुछ संक्षिप्त व्याख्या होती है। इसमें केवल विषय को ही स्पष्ट किया जाता है। कहीं-कहीं अन्य ग्रंथों से उदाहरण भी दिये जाते हैं । चैनसुखयति ने बोपदेव की ‘शतश्लोकी' पर 'स्तबक' भाषाटीका लिखी (1763 ई.)। 3. टब्बा-टब्बा अत्यंत संक्षिप्त टीका होती है। मूलग्रन्थ के शब्दों के अर्थमात्र लिखे जाते हैं । इस संक्षिप्त भाषा टीका को 'टब्बा' कहते हैं । 'शब्द का अर्थ उसके ऊपर, नीचे या पार्श्व में लिखा जाता है ।' चैनसुखयति ने लोलिंबराज के 'वैद्यजीवन' पर 'टब्बा' (18वीं शती) की रचना की थी।
1 डॉ. हीरालाल माहेश्वरी, राजस्थानी साहित्य, पृ. 336-337
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