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को इस सन्दर्भ में अग्रणी होने का गौरव और श्रेय प्राप्त है । राजस्थान में निर्मित अनेक जैन - वैद्यक-ग्रन्थों, जैसे वैद्यवल्लभ ( हस्तिरुचिगणिकृत ), योगचिंतामणि हर्ष कीर्तिसूरिकृत) आदि का वैद्य - जगत् में बाहुल्येन प्रचार-प्रसार और व्यवहार पाया जाता है । जैन विद्वानों के वैद्यक ग्रन्थ अधिकांश में मध्ययुगीन भाषाओं जैसे पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, कर्णाटकी (कन्नड़) में तथा संस्कृत में प्राप्त हैं ।
जैन विद्वानों द्वारा मुख्यतया निम्न संतलों पर वैद्यक-ग्रन्थों का प्रणयन हुआ
जैन यति-मुनियों और भट्टारकों द्वारा स्वेच्छा से ग्रन्थ-प्रणयन ।
जैन यति-मुनियों द्वारा किसी राजा अथवा समाज के प्रतिष्ठित और धनी व्यक्ति ( श्रेष्ठी आदि) की प्रेरणा, अनुरोध या आज्ञा से ग्रन्थ- प्रणयन ।
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स्वतंत्र रूप से जैन श्रावक विद्वानों और चिकित्सकों द्वारा ग्रन्थ-प्रणयन । जैन विद्वानों द्वारा लिखित यह संपूर्ण आयुर्वेदवाङ्मय अनेक प्रकार का है । इसके निम्न रूप स्पष्ट हैं
मौलिक-ग्रन्थ (‘कल्याणकारक' आदि )
सार-संक्षेप-ग्रन्थ ('डम्भक्रिया' आदि ) संग्रह -ग्रन्थ ( 'योगचिंतामणि' आदि )
टीका- ग्रन्थ
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अनुवाद - ग्रन्थ (भाषानुवाद और पद्यानुवाद)
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स्तबक, टिप्पणी, टब्बा - ग्रन्थ
7. गुटके ( समय - समय पर प्राप्त वैद्यक ज्ञान का संकलन )
इन सबकी कुल संख्या बहुत विशाल है |
हिन्दी - राजस्थानी के जैन वैद्यक-ग्रन्थ
हिन्दी राजस्थानी में जैन यति-मुनियों और श्रावकों द्वारा जो वैद्यक कृतियां लिखी गई हैं - उनके निम्न रूप हैं
1. मौलिक या स्वतंत्र पद्यमय रचना - जैसे मान कविकृत 'कविविनोद' (1688 ई.) और 'कविप्रमोद' ( 1689 ई.), जिनसमुद्रसूरिकृत वैद्यकसारोद्वार या वैद्यकचितामणि (1680 ई. के लगभग), जोगीदासकृत 'वैद्यकसार' ( 1705 ई.), नयनसुखकृत 'वैद्यमनोत्सव' ( 1592 ई ) मेघमुनिकृत 'मेघविनोद' ( 1761 ई.), गंगारामयतिकृत 'यति निदान' (1821 ई.) ।
2. मौलिक या स्वतंत्र गद्यमय रचना - ये प्रायः योगसंग्रह के रूप में मिलते हैं । इनको 'गुटका' कहा जाता है । ये संकलित हैं । इनको 'आम्नायग्रन्थ' भी कहते हैं । क्योंकि इनमें पारंपरिक वैद्यक नुसखों को संग्रहीत किया गया है । ये ग्रंथ बहुत उपयोगी हैं । इनमें अनुभव सिद्ध योग रहते हैं । कभी-कभी विशिष्ट योग के साथ उसके
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