________________
समाज की सेवा करना जैन-यति-मुनियों के दैनिक जीवन का अंग बन गया था, जिसका सफलतापूर्वक निर्वाह भी उन्होंने ऐलोपैथिक चिकित्सा-प्रणाली के प्रचार-प्रसार होने पर्यन्त यथावत् किया हैं; परन्तु इस नवीन चिकित्सा-प्रणाली के प्रसार से उनके इस लोक-हितकर कार्य का प्रायः लोप होता जा रहा है। यही कारण रहा कि जैन आचार्यों और यति-मुनियों द्वारा अनेक वैद्यक-ग्रन्थों का प्रणयन होता रहा है।
सांस्कृतिक दृष्टि से जैन विद्वानों और यति-मुनियों द्वारा समाज में चिकित्साकार्य करने और चिकित्सा-ग्रन्थ-प्रणयन द्वारा तथा अनेक उदारमना जैन-श्रेष्ठियों द्वारा विभिन्न स्थानों पर धर्मार्थ (निःशुल्क) चिकित्सालय व औषध-शालाएं या पुण्यशालाएं स्थापित कर भारतीय समाज को योगदान प्राप्त होता रहा है। निश्चित ही, उनकी यह देन सांस्कृतिक और वैज्ञानिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण कही जा सकती है ।
[
25