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आणंदविजय - आलमचंद
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इन्हें काशीदास, ठाकुर सिंह, कुशलचंद, आसकरण का शिष्य बताया है। उन्होंने तीन रचनाओं का विवरण भी दिया है जिसको संक्षिप्त करके यहाँ दिया जा रहा है। मौन अकादशी चौ० (१३ ढाल सं० १८१४ माह शुक्ल ५, रवि, मुर्शिदाबाद) का आदि
गुरुवंदना
गुरु परम्परा
"च्यांर तीर्थंकर सासता, विहरमान जिन बीस, चौबीसें जिन पय नमूं जगजीवन जगदीस ।
यह रचना जैसलमेर वासी श्रावक सुगालचंद पुत्र लालचंद के आग्रह पर आलमचंद ने लिखी थी। रचनाकाल एवं स्थान से संबंधित पंक्तियाँ आगे उद्धृत कर रहा हूँ
अ सहने प्रणमी करी, सद्गुरु पय प्रणमेव, श्री मौनेकादशी तणी, कहूं कथा संखेव । "
पंक्तियाँ—
" संवत अढार चवदोत्तर वरसे, माह मास सुदि हरखे बे, वसंत पंचमि आदित्यवारा, पूरण थया अधिकारों बे। मकसूदाबाद नयर ने मांहे, चौपड़ कीधी उछाहे बे।
जुग परधान श्री जिनचंद्रा, तसुशिष्य सकलचंदा बे, पाठक समयसुंदर शाखायें, काशीदास जी कहाया बे, तसु सीस ठाकुरसी जु कहावे, वाचक पदवी धरावैं बे, तसु शिष्य वाचक कुशलचंदा, देखा होत अणंदा बे, आसकरण तसु अंतेवासी, जग में सुजस प्रकाशी बे।"
अंतिम पंक्तियाँ— “राग धन्यासिरी तेरमी ढाल, इण परि भाखी रसालू बे| आलमचंद कहै सुख पावो, मधुर स्वरै गुण गावो बे।"
दूसरी रचना गद्य में है। रचना का शीर्षक है 'जीव विचार भाषा' २४ (गाथा ११४२) सं० १८१५ वैशाख शुक्ल ५, कविवार, मुर्शिदाबाद,
यह रचना भी शाह सुगालचंद के आग्रह पर की गई । रचनाकाल संबंधी
“बाण शशी वसु वृद्ध ? वरवाणु, अन बच्छर संख्या जाण,
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