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वीरविजय
इसमें हीरविजय से लेकर शुभविजय तक के गुरुओं की वंदना की गई है। रचनाकाल- मुनि सर हस्ति शशि संवत्सर, नमि संखेसर पासो जी,
श्रावण सुदि गुरुवार चतुर्थी, राजनगर चौमासों जी। अंत- “सुर सुंदरी नो रास रसाल, श्रोता ने घर मंगलमाल,
तिणे कारण सुणी आदर करी, वीर कहे जयलीला वरी।"
इस रचना को उमेद राम हर गोविंद दास ने अहमदाबाद में छपवाया है। अष्टप्रकारी पूजा (सं० १८५८ भाद्र पद शुक्ल १२, गुरुवार, राजनगर) रचनाकाल- संवत अठार अट्ठावन वरसे, भाद्रपद सित पक्ष भलो,
द्वादशी दिन गुरुवार मनोहर, ओ अभ्यास भयो सफलो।
यह पूजा विविध पूजा संग्रह' के पृष्ठ ५१-६७ पर प्रकाशित है। इसके अलावा 'जैन रत्न संग्रह' और अन्यत्र भी छपी है। 'नेमिनाथ विवाह लो अथवा नेमिनाथ विवाह गरबो' (२२ ढाल, १५१ कड़ी सं० १८६० पौष कृष्ण ८, अहमदाबाद) आदि- सरसति चरण सरोज रमि रे श्री शंखेश्वर पास नमीरे,
नेम विवाह ते रंगे गास्युं, जिमि नेमिनाथ पूर्व प्रकास्युं। रचनाकाल- नभ भोजन गज चंद्र ने वर्षे लाल,
पोस तणी वदि आठिम दिवसे लाल। शुभवेली
इसमें कवि ने अपने गुरु शुभविजय का गुणानुवाद किया है। यह बेलि भी प्रकाशित है।
स्थूलिभद्र नी शियल बेल (१८ ढाल, १९१ कड़ी, सं० १८६२ पौष शुक्ल १२ गुरुवार राजनगर) रचनाकाल- अठार सै बासठे शुदि पौष, बारस गुरुवारे ध्याई रे।
राजनगर मुनिवर निर्दोष, शियल बेली प्रेमे गाई रे।
इसमें स्थूलिभद्र और कोशा की सरस कथा के माध्यम से स्थूलिभद्र के दृढ़ साधना की प्रशस्ति है। यह रचना प्राचीन संञ्झाय तथा पद संग्रह में भी प्रकाशित है।
दशार्णभद्र की संज्झाय (५ ढाल, सं० १८६३ मेरुतेरस, गुरुवार, लीबड़ी); रचना के नमूने के लिए चार अंतिम पंक्तियाँ प्रस्तुत है-इसमें रचनाकाल भी दिया है
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