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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आदि आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के काव्य साहित्य में मात्रिक छंदों का अन्त्यानुप्रास के साथ प्रचुर प्रयोग मरुगुर्जर साहित्य का प्रभाव है। काव्यरुप
काव्यरुपों की दृष्टि से मरुगर्जर जैन साहित्य बड़ा सम्पन्न तथा विविधतापूर्ण है। जैन कवियों ने लोकगीतों से देशी-धुनों और तों को लेकर ढालें बनाईं और काव्य में उनके प्रयोग द्वारा संगीत का नूतन संचार किया। काव्य रुपों को छंदों के आधार पर रास, फाग, चउपइ, बेलि, चर्चरी, आदि; रागों की दृष्टि से बारहमासा, झुलण, लावणी, बधावा, प्रभाती, गीत, पद आदि और नृत्य की दृष्टि से गरबा, डांडिया, धवल, मंगल आदि नाना भागों में बाँटा जा सकता है। इसी प्रकार कथा प्रबंध के आधार पर प्रबंध, खण्ड, पवाडा, चरित, आख्यान, कथा, संवाद आदि, छंद संख्या के आधार पर अष्टक, बीसी. चौबीसी, बहोत्तरी, छत्तीसी, बावनी, सत्तरी, शतक आदि नाना काव्यरुप प्रचलित हैं। उपासना की दृष्टि से विनती, नमस्कार, स्तुति, स्तवन, स्तोत्र इत्यादि, इसी प्रकार ऐतिहासिकता के आधार पर पट्टावली, गर्वावली, तलहरा इत्यादि। काव्यरुपों की ऐसी विविधता शायद ही किसी भाषा के साहित्य में उपलब्ध हो। यह संपूर्ण संपदा हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी आदि भाषाओं के काव्य साहित्य को मरुगुर्जर जैन साहित्य से अनायास प्राप्त हो गई है।
उपरोक्त दृष्टियों से विचार करने पर यह साहित्य अत्यन्त महत्वपूर्ण और मूल्यवान हैं किन्तु इसका मूल्यांकन वास्तविक रुप से अब तक नहीं हो पाया है जिसके कारण मरुगुर्जर जैन साहित्य पूर्णतया प्रकाश में नहीं आ पाया हिन्दी भाषा और साहित्य के अनेक महत्वपूर्ण पक्ष भी अंधेरे में रह गये हैं। आवश्यकता है कि मरुगुर्जर जैन साहित्य के विविध काव्यांगों और पक्षों पर गहन अध्ययन, विवेचन और शोध कार्य किया जाय
और उसके काव्य, कला, साहित्यरुप आदि की प्रासंसिगकता तथा आ० भारतीय आर्य भाषाओं के वैज्ञानिक अध्ययन तथा उनके साहित्य की काव्य रुढ़ियों, छंदों अलंकारों का आधार वहाँ ढूढ़ा जाय।
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