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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
में विशिष्ट महत्व प्रदान किया है। इसकी मुख्य विशेषता है काव्य में सामान्य मनुष्य को सम्मान देना। संस्कृत साहित्य में सामान्य व्यक्ति को प्राय: काव्य का नायक नहीं बनाया जाता था। मरुगुर्जर जैन साहित्य में नियम-संयम का पालन करने वाला कोई भी अचारवान् श्रावक या श्रेष्ठि अथवा साधारण व्यक्ति काव्य का चरित नायक बनाया जाने लागा। इस क्रांतिकारी उदार दृष्टिकोण के कारण जैन साहित्य को सच्चे अर्थ में जनता का साहित्य माना जाना चाहिये। आज के जनवादी और प्रगतिशील साहित्य की नींव जैन साहित्य ने डाली थी। देशी भाषाओं के आधुनिक साहित्य को मरुगुर्जर जैन साहित्य से यह बहुत बड़ी विरासत प्राप्त हुई हैं।
धार्मिक सहिष्णुता इसकी दूसरी महत्वपूर्ण विशिष्टता है। जैनाचार्य अनेकांतवादी-उदार दृष्टिकोण के कारण कभी धार्मिक कट्टरता को महत्व नहीं देते। कर्मवाद में अटूट आस्था जैन साहित्य की तीसरी विशेषता है। जैन साहित्य डंके की चोट पर घोषित करता है कि मनुष्य अपने कर्म का फल अवश्य पाता है। कर्म से ही वह बन्धन में पड़ता है और उससे ही मुक्त भी हो सकता है। कोई दूसरा न उसे बाँधता है और न छोड़ता है। मनुष्य के पुरुषार्थ पर ऐसा दृढ़ विश्वास संसार के अन्य धर्माश्रित साहित्य में दुर्लभ है। मनुष्य अपने सत्कर्मों द्वारा मुक्त, शुद्ध चैतन्य भगवंत बन सकता है। जैन दर्शन और धर्म तथा साहित्य यह बार-बार घोषित करता है कि मनुष्य भगवान बन सकता है। वे भगवान को अवतरित कराकर मनुष्य बनाने में नहीं बल्कि मनुष्य को अरिहंत बनाने में पूर्ण विश्वास व्यक्त करते हैं। जैन भक्त अपने बीतराग भगवंत से कुछ याचना नहीं करता बल्कि उसके सदाचरण पर रीझकर उसके प्रति श्रद्धा-भक्ति निवेदित करता है। कर्मों का कर्त्ता और उसके फल का भोक्ता स्वयं जीव है। वह अपने कर्म पर विश्वास करके निरंतर संयम, नियम और धर्माचरण द्वारा अपनी मुक्ति का मार्ग स्वयं प्रशस्त करता है। साधक तीर्थंकर के गुण, कीर्तन स्तवन के द्वारा निज में जिनत्व का बोध करता
है।
जैन धर्म में आत्मा और परमात्मा को एक माना गया है- 'अप्पा सो परमप्पा' . यह निर्गुण परंपरा के ज्ञानमार्गियों की घोषणा 'अह ब्रह्मास्मि' के मेल में है। इनका ब्रह्म निर्गुण और सगुण से परे प्रेम स्वरुप है। जैन भक्त कवियों में आनंदधन, भैया भगवतीदास, बनारसीदास आदि अनेक उच्चकोटि के कवि हो गये हैं। इस भक्ति में सगुण और निर्गुण का तथा ज्ञान और कर्म का सच्चा समन्वय है ।
समस्त जैन शास्त्र अनुयोगों में विभक्त है - यथा - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग । प्रथमानुयोग का संबंध साहित्य से है । समस्त धार्मिक कथासाहित्य प्रथमानुयोग के अन्तर्गत गिना जाता है। महापुराण, पुराण, चरित काव्य, रुपक
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