Book Title: Hindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Shitikanth Mishr
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 293
________________ हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास साहित्येतिहासकार और पाठक उदासीन रहे हैं और अभी भी हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हेमचन्द्र, सोमप्रभसूरि, मेरुतुंग, विद्याधर और शाङ्गधर का संक्षिप्त परिचय देकर हिन्दी साहित्य के इतिहास में इस विशाल साहित्य का खाता बन्द कर दिया है। २८२ (( वस्तुत: इस विशाल साहित्य में जैनधर्म की कोरी उपदेशपरक रचनायें ही नहीं है बल्कि विपुल सरस काव्य साहित्य भी है जो सहृदयों के सहानुभूतिपूर्ण कृपादृष्टि की प्रतीक्षा कर रहा है। आ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने जोर देकर लिखा है- इस साहित्य को अनेक कारणों से इतिहास ग्रंथों में सम्मिलित किया जाना चाहिए। कोरा धर्मोपदेश समझ कर छोड़ नहीं देना चाहिए। धर्म वहाँ केवल कवि को प्रेरणा दे रहा है । जिस साहित्य में केवल धार्मिक उपदेश हो उससे वह साहित्य निश्चित रुप से भिन्न है, जिसमें धर्म भावना प्रेरक शक्ति के रुप में काम कर रही हो, जो हमारी सामान्य मनुष्यता को आन्दोलित, मथित और प्रभावित कर रही हो।" आचार्य द्विवेदी का मत था कि धार्मिक प्रेरणा या आध्यात्मिक उपदेश को हमेशा काव्य का परिपंथी नहीं समझा जाना चाहिए अन्यथा हमारे साहित्य की विपुल संपदा चाहे वह स्वयंभू, पुष्पदंत या धनपाल की हो या जायसी, सूर, तुलसी की हो, साहित्य क्षेत्र से अलग कर दी जायेगी। इसलिए धार्मिक होने मात्र से कोई रचना साहित्य क्षेत्र से खारिज नहीं की जा सकती । लौकिक कहानियों को आश्रय करके धर्मोपदेश देना इस देश की प्राचीन प्रथा रही है। मध्ययुग में साहित्य की प्रधान प्रेरणा धर्मसाधना ही रही है और धर्मबुद्धि के कारण ही आजतक प्राचीन साहित्य सुरक्षित रह सका है। जैन साहित्य के संबंध में आ० द्विवेदी का यह अभिमत शत-प्रतिशत सही है। साहित्य के प्रति जैन साहित्यकारों का दृष्टिकोण जीवन और जगत के प्रति जैनाचार्यों का एक विशेष दृष्टिकोण है। संसार की नश्वरता, समत्वदृष्टि, जीवदया और नैतिक संयम-नियम पर उनका विशेष ध्यान रहता है । वे साहित्य को केवल कला - विनोद नहीं बल्कि मानव के परमपुरुषार्थ - मोक्ष प्राप्ति का एक सबल साधन मानते हैं। उन लोगों ने शृंगार के रस राजत्व को अस्वीकार कर शान्त या शम को साहित्य का प्रधान लक्ष्य माना है। शांति की आज संसार को सबसे अधिक आवश्यकता है। इसलिए जैन साहित्य आज सर्वाधिक प्रासंगिक है। जैन साहित्यकारों का मत है कि शृंगार और शम के स्वस्थ समन्वय से ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। ये लोग जीवन की मादकता, इन्द्रिय लिप्सा और कामुक उद्वेगों का परिहार अंततः शम में करते हैं। जैनकाव्यों के नायक अपने यौवन में युद्ध, संभोग आदि सभी प्रवृत्तियों में लिप्त होते हैं और कवि वीर, शृंगार आदि के विमर्श का अवसर निकाल लेते हैं किन्तु अंत में घटनाक्रम अपने चरम पर पहुँच कर 'राम' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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