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उपसंहार का अभ्युदय हुआ उसी प्रकार सोलंकी शासक सिद्धराज और कुमारपाल के शासन काल में आचार्य हेमचन्द्र जैसे महान् प्रतिभाशाली, कलिसर्वज्ञ विद्वान् एवं संत का आविर्भाव संभव हुआ।
राजाश्रय के अलावा इस साहित्य को जैन धर्माचार्यों ने पर्याप्त संरक्षण एवं पोषण दिया। जैन धर्म में दान के सप्त क्षेत्रों में तृतीय क्षेत्र शास्त्रलेखन एवं संरक्षण का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रत्येक साधु एवं श्रावक के लिए शास्त्राध्ययन, लेखन, संरक्षण आवश्यक धार्मिक कृत्य माना गया है। अत: जैन मंदिरों और ग्रंथ भण्डारों में हस्तप्रतियों के लेखन और संरक्षण का उत्तम प्रबन्ध किया जाता था। जैनसंघ द्वारा स्थापित-संचालित ग्रंथभण्डारों में जैसलमेर और बीकानेर के विशाल ज्ञानभण्डारों के अलावा अभय जैन ग्रंथालय, अनूप पुस्तकालय, प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान आदि संस्थानों ने इस दिशा में महत्वपूर्ण योगदान किया है। इनके ग्रंथागारों में अपार जैन साहित्य सुरक्षित है।
जैन धर्मावलंबी अपने उदार, अहिंसावादी, अनेकांतवादी और सहिष्णु दृष्टिकोण के कारण कभी धार्मिक संघर्ष में नहीं उलझे। जैन साधु संयमी, तपस्वी और प्रभावशाली हुए जिनका राजदरबारों में भी पर्याप्त प्रभाव था। साथ ही जैन श्रेष्ठी श्रावकों की भी मुसलमानी दरबारों में अच्छी साख थी जिसके कारण जैन ग्रंथ भण्डारों पर मुसलमानों की क्रूर दृष्टि शायद ही कभी पड़ी। इसलिए यह साहित्य राज्याश्रय,धर्माश्रय प्राप्त कर खूब फला फूला और सुरक्षित रहा। जबकि मध्यदेश का हिन्दी साहित्य मुसलमानी आक्रमणों के फलस्वरुप नष्ट हो गया। गाहड़वाल राजाओं ने भी स्थानीय साहित्य की तुलना में संस्कृत भाषा और साहित्य को अधिक महत्व दिया। इसलिए मध्यदेश की भाषा और उसके साहित्य को जानने के लिए पश्चिमी प्रदेश की मरुगुर्जर भाषा उसके साहित्य का महत्व अक्षुण्य है।
इन ग्रंथ भण्डारों में सुरक्षित हस्तप्रतियों में समस्त उत्तर भारत के महत्वपूर्ण इतिहास की प्रामाणिक सामग्री के साथ ही भाषा विकास एवं साहित्यिक प्रवृत्तियों की क्रमिक कड़ियाँ सुरक्षित है। इनके आधार से हम उत्तर भारत के इतिहास, भाषा, साहित्य और संस्कृति का सही स्वरुप समझ सकते हैं। इनके संबंद्ध में अप्रमाणिकता का प्रश्न ही उठता क्योंकि ये धर्मबुद्धि से प्रेरित अत्यन्त श्रद्धापूर्वक लिखी गई और सुरक्षित रखी गई है जबकि अन्य साहित्य की उतनी प्राचीन एवं प्रामाणिक प्रतियाँ उपलब्ध न होने के कारण मूल ग्रंथ का वास्तविक पाठ और उसकी भाषा का सही स्वरुप निर्धारित करना कठिन कार्य है। ये हस्तप्रतियाँ प्रत्येक शताब्दी में प्रत्येक चरण की सन्-संवत्वार उपलब्ध होने के कारण ऐतिहासिक एवं वैज्ञानिक अध्ययन का ठोस आधार प्रस्तुत करती है। यह खेद की बात है कि इस विशाल एवं प्रामाणिक साहित्य के प्रति हिन्दी के
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