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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (३२ कड़ी, सं० १८३२ चौमासुं, सुरत); इसका प्रारंभ इस प्रकार हुआ है
शीयल रतन जतने करी राख्यो, बरजे विषय विकार जी,
शीलवंत अविचल पद पामे, विषय सले संसार जी। रचनाकाल- संवत अठार ने वत्रीस वर्षे, सूरत बिंदिर चौमास जी,
स्थिवर भीम सुपसाय थी विनवे, कहे स्थिवर सुजाण जी।४०८ इसके नाम से ही जैसा स्पष्ट है, यह रचना शील का महत्त्व प्रतिपादित करती
सुजानसागर
ये तपागच्छीय चरित्रसागर > सुंदरसागर > मेघसागर > श्यामसागर के शिष्य थे। इन्होंने ढालमंजरी अथवा राम रास अथवा ढालसागर (६ खण्ड, सं० १८२२ मागसर, शुक्ल १२, रविवार, उदयपुर) की रचना की जिसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ निम्नवत हैं
मंगल सहजानंद सुख, चिदानंद निज धाम, अहनिशि इकता तेहनी, करण हरण दुख ग्राम। नमिओ आदि जिनेसरु, मिथ्या तिमिर दिनेश, x x x x x x जिनमुख कमल निवासिनी, समरुं सरसति देवि, मिथ्या तिमिर विनास करि, ज्ञानकला प्रगटेवि। x x x x x x x कुण-कुण नृप इण वंश में, करि-करि उत्तम काज, तरि संसार पयोनिधि, बैठे धर्म जिहाज। अहवा वंश विशुद्ध नृप, तिण की कथा विशाल,
कहण थयो षट् खंड करि, मोहन रास रसाल।
रचना के अंतिम अंश में पहले लिखी गई गुरु परंपरा कवि ने बताई है। रचनाकाल- कयों ग्रंथ आग्रह करी धर्म ध्यान मनिधारी,
पद अर्थादिक पेखिने, सह लीज्यो रे वर सकवि सभारि। शाक अठारा सय लही, विक्रम थी बावीस,
शित मृगसिर नी वरसै, आणंद योगे रे रविवार जगीस। कलश- रघुवंश गायो सुजस पायो परमतत्त्व प्रकाशणो,
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