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सुमतिप्रभ सूरि (सुंदर) -
ये बड़गच्छ के जिनप्रभसूरि > सुखप्रभ सूरि के शिष्य थे। रचना-चौबीसी (२५ ढाल, सं० १८२१ कार्तिक शुक्ल ५, अहमदाबाद) के प्रारंभ में लिखा है - अथ सुंदर कृत चौबीसी लिख्यते ; ।
इससे ज्ञात होता है कि सुंदर इनका उपनाम था। इसके प्रारंभ की पंक्तियाँ निम्नवत हैं
अंत
रचनास्थान
रचनाकाल ----
हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
आदीसर अवधारिओ दास तणी अरदास ऋषभ जी,
आस निरास न कीजिए, लीजिये जग जसवास ऋषभ जी ।
X
X X X X X X X जाणी सेवक जगधणी, आपो अविचल वास री, तरण तारण प्रभु तारीये, दाखे सुंदर दास री।
ढाल २५ वीं 'आदर जीत क्षमा गुण आदर' यह देशी, अहवा रे जिन चउवीसे नमतां, हुवे कोड कल्याण जी, सय सगलाई भाजी जावै, अरिहंत मांनी आण जी । राजनगर चौमास रहीने, ओ मै कीधी जोड जी; कवियण ने हुं अरज करूं छु, मत काढ़ीओ खोड जी।
संवत अठार इकबीसा मांहे, उत्तम काती मास जी, सोभाग्य पांचम परब तणो दिन, गाया गुण उल्लास जी।
इसमें कवि ने पूर्व लिखित गुरु परंपरा स्वयं बताई है। इसकी अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
तास पसाय सुमतप्रभ सूरे, गाया जिन चौबीस जी,
भगतां गुणतां सुणतां भवि जन ने, होवे शीयल जगीस जी । ४०११
यह रचना जैन गुर्जर साहित्य रत्नो भाग २ (पॉच स्तवन में) प्रकाशित है। कवि
ने इसमें सुंदर और सुमतिप्रभ दोनों नाम दिया है इससे स्पष्ट है कि सुमतिप्रभ और सुंदर एक ही है।
सुमतिसागर सूरि शिष्य
इनकी एक रचना का उल्लेख मिला है 'चरण करण छत्रीसी' (५४ कड़ी);
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