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चंद्र - चंपाराम
सुमति ने उपदेश स्तव' का
आदि
अंत
"सूधां मारग जिनवर भारवें, सरस्वती पडीमा जेह ऊर्ध्व अद्धो त्रीछें लोकें दाखें, कोडी पनरसत तेहवे । लोका भेलवीया मत भूलो।
पंडित नवल नो इणीं परे बोले चतुर कहें सुख माणो रे लो,
जैन गुर्जर कवियों के प्रथम संस्करण में मैत्राणा मंडन ऋषभ जिन स्त० का कर्त्ता नवलविजय को बताया गया था लेकिन जैसा उद्धृत पंक्तियों से स्पष्ट है ये रचनायें नवलविजय के शिष्य चतुरविजय की हैं । १०३
चन्द्र
अंत
आदि
खरतरगच्छीय लेखक थे। इन्होंने 'बूढ़ा चरित्र रास' (सं० १८२६ मागसर) की रचना वृद्धविवाह जैसी सामाजिक कुरीति पर व्यंग्य करते हुए लिखा है । "दयाज माता वीनवुं, गणधर लागूं पाय, वर्धमान चोबीसमा बांदु सीस नमाय । कन्या ने जमी तणो, पइसो न लीजो कोय। बूढ़ा ने परणावतां गुण बूढारा जोय ।
“संवत् १८३६ सं० आणी मृगसिर मास अ जांणी, 'चंद' परतिख देख बखाणी सुणो कलजुग री निसांणी ।
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इसकी भाषा पर राजस्थानी का अधिक प्रभाव दिखाई पड़ता है। जै० गु० क० प्रथम संस्करण में पहले तो इस रचना का कर्त्ता अज्ञात कवि को बताया गया था किन्तु उसी में आगे इसे चंद्र की रचना कहा गया था । १०४ इसके नवीन संस्करण में इस कवि और रचना का उल्लेख नहीं मिला।
चंपाराम (दीवान) -
आप जयपुर राज्य के दीवान थे। इनकी रचना 'जैन चैत्य स्तव' (सं० १८८२) छोटी किन्तु महत्त्वपूर्ण है। इसमें जैन चैत्यों का स्तवन और वर्णन ही नहीं बल्कि मूर्तिपूजा का पोषण किया गया है। लगता है कि मूर्ति के प्रति कम होते विश्वास को जगाने का इसमें प्रयत्न किया गया है। यह रचना दीवान जी ने साधु आसकरन के लिए लिखी थी। इसकी प्रतिलिपि दीवान जी ने सं० १८८३ में वृन्दावन के श्री खरगराय जी से लिखवाई थी। लेखक का जिन प्रतिमा में कितना दृढ़ विश्वास है, यह अग्राङ्कित
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