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देवीदास - धर्मचन्द्र |
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आनंदराय के सुपुत्र थे। इनका जन्म आषाढ़ चतुर्दशी सं० १७९९ में हुआ था। इनका जीवन वसवा के अलावा जयपुर, उदयपुर और आगरा में भी व्यतीत हुआ था। आगरा में बनारसीदास, भूधरदास और ऋषभदास के संपर्क में रहकर इन्हें साहित्यिक स्फुरणा हुई। ये जयपुर राज्य में महत्त्वपूर्ण पद पर रहे। राजकाज में व्यस्त होते हुए भी इन्होंने अध्यात्म, जिनपूजा, जैनदर्शन, शास्त्रचर्चा और प्रवचन आदि के साथ साहित्य सृजन में पर्याप्त यश अर्जित किया। इनके जोधराज आदि छह पुत्र थे। इन्होंने गद्य-पद्य में १८ पुस्तकें लिखी जिनमें ९ पद्य, ७ गद्य और २ टीका ग्रंथ है। कुछ रचनाओं का नाम आगे दिया जा रहा है
" जीवंधर चरित १८०५, त्रेपन क्रिया कोष १७९५, अध्यात्म बारह खड़ी, विवेकविलास, श्रेणिक चरित १७८२, श्रीपालचरित १८२२, चौबीस दण्डक भाषा, सिद्धपूजाष्टक और सार चौबीसी आदि। इनकी कुछ रचनायें १८ वीं शती की और कुछ १९वीं शती की हैं इसलिए पूर्व योजनानुसार इनकी संक्षिप्त चर्चा तृतीय खंड (१८वीं वि०) में की जा चुकी है। १९वीं शती की कुछ प्रमुख रचनायें इस प्रकार हैं
आदि पुराण भाषा सं० १८२४, पद्मपुराण भाषा १८२३ माघ शुक्ल ७, हरिवंश पुराण भाषा १८२९ चैत्र शुक्ल ९, यह जिनसेन कृत संस्कृत ग्रंथ हरिवंश पुराण की वचनिका है। इससे लगता है कि ये गद्य लेखक थे और भाषा - टीका का कार्य अधिक किया है। पद्मपुराण १८२३, यह रविषेणाचार्य कृत ग्रंथ का ब्रज-खड़ी मिश्रित ढूंढाड़ी भाषा में गद्यानुवाद है। हरिवंश पुराण शायद इनकी अंतिम रचना है। २०८
पुण्यास्रव कथा कोष १७७७ की रचना है। इसमें ५९ कथायें संग्रहीत है। इसके गद्य का नमूना उपलब्ध है। परमार्थ प्रकाश और सार समुच्चय शीर्षक कृतियों का काल निर्धारण नहीं हो पाया है।
इन तमाम रचनाओं के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि दौलतराम कासलीवाल १८-१९ वीं शती के संक्रातिकालीन कवियों-साहित्यकारों में श्रेष्ठ स्थान के अधिकारी हैं। उन्होंने ढूढ़ारी ( राजस्थानी ) गद्य और पद्य के साहित्य भंडार की श्री वृद्धि में सराहनीय योगदान किया है।
धर्मचंद |
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चैत्र
पार्श्वगच्छ के हर्षचंद इनके गुरु थे। इन्होंने 'जीव विचार भाषा' दोहा सं० १८०६ शुक्ल द्वितीया, मकसूदाबाद में और 'नवतत्त्व भाषा दोहा' की रचना सं० १८१५ माह शुक्ल पंचमी को मकसूदाबाद में की। २०९
बुधवार
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