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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास में 'चौबीसी' की रचना की।३७४ चूँकि यह रचना बीसवी शती की है अत: इसका नामोल्लेख करके छोड़ दिया गया है। ये गोकुलचंद ओसवाल के पुत्र थे। विनयभक्ति
ये खरतरगच्छीय वाचक भक्तिभद्र के शिष्य थे। इनका प्रसिद्ध नाम वस्ता था। 'जिनलाभ सूरि दवावैत' इनकी प्रथम हिन्दी रचना है। जिनलाभ सूरि का आचार्य काल सं० १८०४ से १८३४ तक था अत: यह रचना इसी कालावधि में हुई होगी। इसकी गद्य वचनिका का एक उद्धरण नमूने के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है
__"ऐसी पद्मावती माई बड़े-बड़े सिद्ध साधू कू नै ध्याई। तारा के रूप बौद्ध सासन समाई। गौरी के रूप सिव मत वालु नैं गाई। जगत में कहानी हिमाचल की जाई। जाकी संगती काहू सो लखी न जाई। कौसिक मत में वज्रा कहानी, सिव जूं की पटरानी। सिव ही के देह में समानी। गाइत्री के रूप चतुरानन मुख पंकज बसी। अक्षर के रूप चौद विद्या में विकसी।" इस गद्यांश में पद्य जैसी तुकांत की प्रवृत्ति दर्शनीय है।
इनकी दूसरी रचना 'अन्योक्ति बावनी' महत्त्वपूर्ण है। इसमें बासठ पद्य हैं। जैसलमेर के राजा मूलराज के आग्रह पर लेखक ने सं० १८२२ में इसका लेखन प्रारंभ किया। इसकी एक प्रति अभय जैन ग्रंथालय में सुराक्षित है।३७५ (पं०) विलास राय
ये इटावा के निवासी थे। इन्होंने सं० १८३७ में 'नयचक्रवचनिका' और 'पद्मनंदि पचीसी वचनिका' नामक दो गद्य ग्रंथ लिखे।३७६ विवेकविजय
ये तपागच्छ के विजयदया सूरि > मुक्तिविजय > डुंगरविजय के शिष्य थे। इन्होंने सं० १८७२ विजयदसमी को दमण में 'नवतत्त्व स्तवन अथवा रास' की रचना
की।
आदि- सरसती ने प्रणमुं सदा, वरदाता नितमेव;
मुझ मुख आवी तूं बसे, करुं निरंतर सेव।
इसके प्रारंभ में ऋषभदेव की वंदना करके तत्त्वविचार वर्णन का संकल्प लिया गया है; यथा
___ जीव अजीव पुन्य पाप ने, जिन जी से भाख्या जेह, इन सभी तत्त्वों का इस रचना में सरल ढंग से वर्णन करके समझया गया है।
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