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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास में रहते थे। इनके वंशज अभी आरा में वर्तमान हैं। इनके ज्येष्ठ पुत्र अजित की ससुराल आरा में थी और वे वहीं रहने लगे थे। वे भी अच्छे कवि थे। वृंदावन ने 'छंदशतक' की रचना अजित के लिए ही की थी। वृंदावन की माता का नाम सिताबी और पत्नी का नाम रुक्मिणी थी। इनकी पत्नी एक धर्म परायण पतिव्रता महिला थी। एक छंद कवि ने उन्हें लक्ष्य करके लिखा है
प्रमदा प्रवीन व्रतलीन पावनी, पिड़ शील पालि कुल रीति राखिनी। जल अन्न शोधि मुनि दान दायिनी,
वह धन्य नारि मृदु मंजु भाषिनी।"
उनकी ससुराल काशी में ही थी जहाँ टकसाल का काम होता था। किसी बात पर यहाँ का कलकर नाराज हो गया और उसने कवि वृंदावन को तीन माह की जेल की सजा दे दी। जेल में उन्होंने प्रसिद्ध कविता 'हो दीनबन्धु श्री पति करुणानिधान जी।' लिखी। वे जेल से मुक्त हो गये इसलिए यह कविता संकटमोचन कही जाती है। उनकी इच्छा 'जैन रामायण' लिखने की थी पर वे इसे पूरा करने से पूर्व ही स्वर्गवासी हो गये। अपनी इस अपूर्ण इच्छा को पूर्ण करने का आदेश उन्होंने अपने कवि पुत्र अजित को दिया था पर दुर्भाग्य वश वे भी इसे पूरा करने के पूर्व ही स्वर्गवासी हो गये। इनकी संकटमोचन कविता में वीतराग विज्ञान के स्थान पर आत्मविभोर करने वाली भक्ति ने ले लिया है। वे स्वाभाविक सहज कवि थे, पुस्तकीय ज्ञान पर आधारित शुष्क काव्य रचना में उनका विश्वास नहीं था। इनकी प्रमुख कृति है 'प्रवचनसार टीका'। यह मूल प्राकृत ग्रंथ का भाषा में पद्यानुवाद है। कवि ने रचना के बारे में लिखा है
तब छंद रची पूरन करी, चित्त न रुची तब पुनि रची,
सोऊ न रुची तब अब रची, अनेकांत रस सौ मची।
अर्थात् कवि ने इसे तीन बार में सुधार कर लिखा था। इनका दूसरा ग्रंथ 'चतुर्विंशति जिन पूजा पाठ है और तीसरी रचना है- 'तीस चौबीसी पूजा पाठ' इन रचनाओं में यमक अनुप्रास आदि शब्दालंकारों की बहुलता है। लगता है कि कवि का ध्यान शब्दों के चमत्कार पूर्ण प्रयोग पर जितना था उतना भाव-निखार पर नहीं दिया जा सका। ये रीति कालीन शैली के श्रेष्ठ कवि थे। छन्द शतक छन्द शास्त्र का सरल छात्रोपयोगी ग्रंथ है। नाथूराम प्रेमी चाहते थे कि इस ग्रंथ को हिन्दी साहित्य सम्मेलन की साहित्य संबंधी प्रथमा परीक्षा में शामिल किया जाय। ग्रंथ से उद्धरण देखें
चतुर नयन मन दरसत, भगत उमंग उर सरसत; नुति थुति करि मन हरसत, तरल नयन जल बरसता
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